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भारत का संवैधानिक विकास (1773 – 1950) – Constitution Development of India

भारत का संवैधानिक विकास (1773 – 1950) इस तथ्य पर विचार करना एवं उसे समझना अधिक महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक है कि संविधान आखिरकार है क्या और किसी भी देश के लिए इसका क्या महत्त्व है? इसके जवाब में कहा जा सकता है कि “संविधान किसी भी देश की सर्वोच्च मौलिक विधि होती है।”

संविधान एक पुस्तक शान होकर नीति-नियमों, कानूनों, शक्तियों एवं उत्तरदायित्वों का एकमात्र स्रोत होता है, जो विधापिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के मध्य अधिकारों एवं शक्तियों का स्पष्ट विभाजन करता ठाकि उनमें किसी भी प्रकार का टकराव उत्पन्न न हो।

संविधान न्यायिक नियमों का एक निकाय होता है जोकि राज्य के सर्वोच्च अंगों का निर्धारण करता है, उनकी रचना, उनके परस्पर सम्बन्धों और उनके कार्य क्षेत्रों को निर्धारित करता है। इसके साथ ही राज्य के सम्बन्ध में प्रत्येक के मौलिक स्थान का भी यह निर्धारण करता है।

संविधान किसी राजनीतिक व्यवस्था के उस आधारभूत ढाँचे का निर्धारण करता है, जिसके अन्तर्गत उसकी जनता शासित होती है। यह राज्य के लिए आवश्यक कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं विधायिका जैसे महत्त्वपूर्ण अंगों की स्थापना करता है तथा उनकी शक्तियों एवं उत्तरदायित्वों की आख्या एवं सीमांकन भी करता है।

भारत में भी एक विस्तृत एवं लिखित संविधान अपनाया गया है। इसका निर्माण एक संविधान सभा (constituent Assembly) द्वारा किया गया था। इसके अतिरिक्त देश की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ने भी भारत के संविधान को प्रभावित किया।

भारत के संविधान को भली-भाँति के लिए ब्रिटिश शासनकाल में हुए संवैधानिक विकास के बारे में भी जानना महत्त्वपूर्ण होगा।

भारत का संवैधानिक विकास

26 जनवरी, 1950 को भारत के नए गणराज्य का शुभारम्भ हुआ और भारत अपने लम्बे इतिहास में पहली बार एक आधुनिक ढाँचे के साथ पूर्ण संसदीय लोकतन्त्र बना।

लोकतन्त्र एवं प्रतिनिधि भारत के लिए पूर्णतया नई नहीं हैं। कुछ प्रतिनिधि निकाय तथा लोकतन्त्रात्मक स्वशासी संस्थाओं (जैसे-ऋग्वेद में सभा, समिति) की विद्यमानता प्राचीनकाल में भी दिखाई पड़ती है। प्राचीनकाल में कबीले की आम सभा को समिति कहते थे और सभा अपेक्षतया छोटे और चयनित बरिष्ठ लोगों की निकाय थी जो मोटे तौर पर आधुनिक विधानमण्डलों में उच्च सदन के समान था। वहीं से आधुनिक संसद का प्रारम्भ माना जा सकता है।

1773 का रेग्यूलेटिंग एक्ट

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कर्मचारियों की गलत प्रवृत्तियों के कारण कम्पनी को हुई क्षति पर रिपोर्ट देने के लिए 1772 ई. में गठित एक गुप्त समिति के प्रतिवेदन पर 1773 ई. में रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित किया गया, जिसके मुख्य प्रावधान थे

  • कम्पनी डायरेक्टरों को ब्रिटिश संसद ने कम्पनी के राजस्व, दीवानी एवं सैन्य प्रशासन से सम्बन्धित मामलों से अवगत कराने का निर्देश दिया।
  •  इस अधिनियम द्वारा 1774 ई. में बंगाल में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई। इस न्यायालय में प्राथमिक तथा अपील के अधिकार की अनुमति थी। इस न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अन्य न्यायाधीश थे। इस न्यायालय के प्रथम मुख्य न्यायाधीश सर एलिजा इम्पे थे।
  • बंगाल में एक प्रशासक मण्डल गठित किया गया जिसमें गवर्नर-जनरल तथा चार पार्षद नियुक्त किए गए। ये पार्षद सैन्य तथा नागरिक प्रशासन से सम्बद्ध थे, निर्णय बहुमत के आधार पर लिए जाते थे।
  • कानून बनाने का अधिकार गवर्नर जनरल समेत उसकी परिषद् को दे दिया गया परन्तु इन कानूनों को लागू करने से पूर्व भारत सचिव से अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य था।
  • बंगाल के गवर्नर को अब समस्त अंग्रेजी क्षेत्रों का गवर्नर कहा गया।

1784 का पिट्स इण्डिया एक्ट

वारेन ब्रिटिश संसद ने नियन्त्रण करने के लिए पिट्स इण्डिया बिल प्रस्तुत किया जिसमें प्रावधान निम्नवत् थे

  • छः कमिश्नरों के एक नियन्त्रण बोर्ड (बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल) की स्थापना की गई। इसके सदस्यों की नियुक्ति ब्रिटिश सम्राट द्वारा होती थी। इसके सदस्यों में एक सदस्य ब्रिटेन का वित्त मन्त्री (चांसलर ऑफ एक्सचेकर), दूसरा सदस्य विदेश सचिव तथा चार अन्य सदस्य सम्राट द्वारा प्रिवी काउन्सिल के सदस्यों में से चुने जाते थे।
  • भारत में गवर्नर जनरल के परिषद् की सदस्य संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गई। इन तीन में से एक स्थान मुख्य सेनापति को दिया गया।
  • मद्रास तथा बम्बई के गवर्नरों की सहायता के लिए 3-3 सदस्यीय परिषदों का गठन किया गया।
  • भारत में कम्पनी के अधिकृत प्रदेशों को पहली बार नया नाम ‘ब्रिटिश अधिकृत भारतीय प्रदेश’ दिया गया
  • भारत में नियुक्त अंग्रेज अधिकारियों के ऊपर मुकदमा चलाने के लिए इंग्लैण्ड में एक कोर्ट की स्थापना की गई।

1793 का चार्टर एक्ट

1793 के चार्टर एक्ट के प्रमुख प्रावधान थे

  • कम्पनी के व्यापारिक अधिकारों को 20 साल के लिए और बढ़ा दिया
  • कम्पनी के नियन्त्रण अधिकारियों को वेतन भारतीय कोष से दिया जाने लगा।
  • गवर्नर जनरल का मद्रास तथा बम्बई प्रेसीडेसियों पर अधिकार स्पष्ट कर लगा। दिया गया।

1813 का चार्टर एक्ट

1813 का चार्टर एक्ट ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया, जिसके मुख्य प्रावधान निम्न थे

  • कम्पनी को अगले 20 वर्षों के लिए भारतीय प्रदेशों तथा राजस्व पर नियन्त्रण का अधिकार दे दिया गया। किन्तु स्पष्ट कर दिया गया कि इससे इन प्रदेशों का क्राउन के प्रभुत्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
  • कम्पनी का भारतीय व्यापार पर एकाधिकार समाप्त कर दिया गया। यद्यपि उसका चीन से व्यापार एवं चाय के व्यापार पर एकाधिकार बना रहा।
  • ईसाई धर्म प्रचारकों को भारत में धर्म प्रचार के लिए आने की सुविधा (पूर्व अनुमति से) प्राप्त हो गई।

1833 का चार्टर एक्ट

इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्न थे 

  • भारत में दास प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया तथा गवर्नर-जनरल को निर्देश दिया कि वह भारत से दास प्रथा को समाप्त करने के लिए आवश्यक कदम उठाए (दास प्रथा का उन्मूलन 1843 ई. में किया गया)।
  • चाय का व्यापार तथा चीन के साथ व्यापार करने सम्बन्धी कम्पनी के अधिकार को समाप्त कर दिया गया।
  • गवर्नर-जनरल की परिषद् में कानूनी सदस्य की नियुक्ति की गई।
  • इस अधिनियम में स्पष्ट कर दिया गया कि कम्पनी के प्रदेशों में निवास करने वाले किसी भरतीय को केवल धर्म, वंश, रंग या जन्म स्थान आदि के आधार पर कम्पनी के किसी पद से जिसके वह योग्य हो, वंचित नहीं किया जाएगा।
  • बंगाल का गवर्नर-जनरल, भारत का गवर्नर जनरल हो गया।

1853 का चार्टर अधिनियम

1853 ई. के चार्टर अधिनियम के प्रमुख प्रावधान थे

  • बंगाल के लिए पृथक् लेफ्टिनेन्ट गवर्नर की नियुक्ति की गई।
  • कम्पनी के कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए प्रतियोगी परीक्षा की व्यवस्था की गई।
  • निदेशक मण्डल में सदस्यों की संख्या 24 से कम कर 18 कर दी गई तथा इनमें से 6 सदस्यों को नियुक्त करने का अधिकार ब्रिटिश राजा को दिया गया। निदेशक मण्डल के सदस्यों के लिए योग्यता निर्धारित की गई।
  • कार्यकारिणी परिषद् के ‘कानून सदस्य‘ को परिषद् का पूर्ण सदस्य बना दिया गया।

1858 का भारतीय शासन अधिनियम

  • भारत का शासन ब्रिटेन की संसद को दे दिया गया।
  • अब भारत का शासन, ब्रिटिश साम्राज्ञी की ओर से भारत राज्य सचिव को चलाना था, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय भारत परिषद् का गठन किया गया। अब भारत में शासन से सम्बन्धित सभी कानूनों एवं कार्यवाहियों पर भारत सचिव की स्वीकृति अनिवार्य कर दी गई।
  • अनुबद्ध सिविल सेवा में नियुक्तियाँ खुली प्रतियोगिता द्वारा की जाने लगीं।
  • अब गवर्नर-जनरल क्राउन का प्रतिनिधि हो गया तथा उसे वायसराय की उपाधि मिली।

भारतीय परिषद अधिनियम (1861)

भारतीय परिषद् अधिनियम के अन्तर्गत निम्न प्रावधान किए गए 

  • बंगाल (1862 ई.), उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त (1866 ई.), पंजाब (1897 ई.) में विधान परिषदों का गठन किया गया।
  • भारतीय प्रतिनिधियों को कानून निर्माण करने की प्रक्रिया में शामिल किया जाने लगा।
  • 1862 ई. में लॉर्ड कैनिंग ने तीन सदस्यों (दिनकर राव, पटियाला के महाराज और बनारस के राजा) को विधानपरिषद् में मनोनीत किया।
  • वायसराय को कार्यपरिषद् के संचालन के लिए नियम बनाने की शक्ति दी गई।
  • पोर्टफोलियो प्रणाली को मान्यता दी गई।

भारतीय परिषद् अधिनियम (1892)

इसके प्रमुख प्रावधान निम्नवत् थे

  • गैर-सरकारी सदस्यों को नियुक्त करने के लिए विशुद्ध नामांकन के स्थान पर सिफारिश के आधार पर नामांकन की पद्धति लागू।
  • भारत सरकार की विधि निर्मात्री संस्था में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या 10 से 16 तक कर दी तथा कम-से-कम 40% सदस्य गैर-सरकारी होंगे।
  • विधि निर्मात्री संस्थाओं को प्रश्न पूछने तथा बजट पर बहस करने का अधिकार सीमित रूप में दिया गया।

भारतीय परिषद् अधिनियम (1909)

तत्कालीन भारत सचिव लॉर्ड मालें और वायसराय मिण्टो के नाम पर प्रतिनिधिक और लोकप्रियता के क्षेत्र में किए सुधारों का समावेश 1909 ई. के भारतीय परिषद् अधिनियम में किया गया।

भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909 के प्रावधान बनाए गए जो निम्नवत् है

  • सर्वप्रथम पहली बार पृथक् निर्वाचन व्यवस्था की शुरूआत। साथ ही मुसलमानो को प्रतिनिधित्व के मामले में विशेष रियायत मिली।
  • मुसलमानों को केन्द्रीय एवं प्रान्तीय विधानपरिषद् में जनसंख्या के अनुपात में अधिक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार मिला।
  • गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी में एक भारतीय सदस्य (प्रथम सदस्य-सत्येन्द्र सिन्हा) को नियुक्त करने की व्यवस्था की गई।
  • इस अधिनियम द्वारा विधानपरिषदों के विचार-विमर्श के कृत्यों में वृद्धि हुई। इसके माध्यम से उन्हें अवसर मिला कि वे बजट या लोकहित के किसी विषय पर संकल्प प्रस्तावित करके प्रशासन की नीति पर प्रभाव डाल सके। कुछ निर्दिष्ट विषय; जैसे-सशस्त्र बल, विदेश सम्बन्ध और देशी रियासतें इसके बाहर थे।

भारत शासन अधिनियम (1919) (मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड प्रतिवेदन)

इस अधिनियम को मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड प्रतिवेदन के नाम से भी जाना जाता है। ब्रिटिश भारत में उत्तरदायी सरकार स्थापित करने की ब्रिटिश सरकार की घोषणा को कार्यरूप देने का कार्य सौंपा गया।

भारत शासन अधिनियम, 1919 में इनकी सिफारिशों को एक विधिक रूप प्रदान किया गया।

इस अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान किए गए

  • संविधान की माँग सर्वप्रथम 1895 ई. में तिलक के ‘स्वराज्य विधेयक’ में परिलक्षित होती है। पहली बार भारत शासन अधिनियम, 1919 के लागू होने के बाद 1922 ई. में महात्मा गाँधी ने कहा था कि “भारतीय संविधान भारतीयों की इच्छानुसार ही होगा”।
  • अप्रैल, 1923 को तेज बहादुर सप्रू की अध्यक्षता में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन में कॉमनवेल्थ ऑफ इण्डिया का प्रारूप तैयार किया जाए।

भारत सरकार अधिनियम (1935)

भारत में 1861 ई. में आरम्भ हुई संवैधानिक विकास की प्रक्रिया का अन्तिम चरण 1935 ई. का भारत सरकार अधिनियम था। यह कहा भी गया है कि 1935 के सुधार, ब्रिटेन द्वारा भारत में अपना शासन कायम रखने और सन्तुलन बनाए रखने के प्रयत्न में किया गया सर्वाधिक पूर्ततापूर्ण और आखिरी प्रयत्न था।

इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्न थे

1. इस अधिनियम में प्रस्तावित संघ में सभी ब्रिटिश भारतीय प्रान्तों, मुख्य आयुक्त के प्रान्तों तथा सभी भारतीय प्रान्तों का सम्मिलित होना अनिवार्य था, किन्तु देशी रियासतों का सम्मिलित होना वैकल्पिक था। इसमें दो शर्तें थी-प्रथम, रियासत के प्रतिनिधियों में न्यूनतम आधे प्रतिनिधि चुनने वाली रियासतें संघ में सम्मिलित न हो। द्वितीय शर्त थी कि रियासतों की कुल जनसंख्या में से आधी जनसंख्या वाली रियासतें संघ में सम्मिलित न हो। जिन शर्तों पर इन सभी रियासतों को संघ में सम्मिलित होना था, उनका उल्लेख एक पत्र में किया जाना था। चूंकि ऐसा नहीं हो सका, इसलिए यह संघ कभी अस्तित्व में नहीं आया तथा 1946 ई. तक केन्द्र सरकार, भारत सरकार अधिनियम, 1919 के प्रावधानों पर ही चलती रही।

2. केन्द्र में समस्त संविधान का केन्द्रबिन्दु गवर्नर जनरल था।प्रशासन के विषयों को दो भागों में विभक्त किया गया-सुरक्षित एवं हस्तान्तरित। सुरक्षित विषयों में विदेशी मामले, जनजातीय क्षेत्र, धार्मिक एवं रक्षा मामले थे जिनका प्रशासन गवर्नर जनरल को कार्यकारी पार्षदो की सलाह पर करना था। ये कार्यकारी पार्षद केन्द्रीय व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी नहीं थे।

3. हस्तान्तरित विषयों में वे सभी अन्य विषय, जो सुरक्षित विषय में नहीं थे, को शामिल किया गया। हस्तान्तरित विषयो का प्रशासन गवर्नर जनरल को उन मन्त्रियों की सलाह से करना था जिनका निर्वाचन व्यवस्थापिका द्वारा होता था। ये केन्द्रीय व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होते तथा अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर इन्हें त्याग-पत्र भी देना पड़ता।

4. संघीय सभा का कार्यकाल पाँच वर्ष होना था। इसके सदस्यों में से 250 प्रान्तों के और अधिकाधिक 125 सदस्य रियासतों के होने थे। रियासतों के सदस्य सम्बन्धित राजाओं द्वारा मनोनीत किए जाते थे. जबकि ब्रिटिश प्रान्तों के सदस्य प्रान्तीय विधानपरिषदो द्वारा चुने जाते थे।

अगस्त प्रस्ताव (1940)

1939 ई. में कांग्रेस ने प्रान्तीय मन्त्रिमण्डलों से त्याग-पत्र दे दिया और इसके बाद भी कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाकर केन्द्र में एक राष्ट्रीय सरकार की स्थापना की माँग की परन्तु ब्रिटिश सरकार इस माँग की अवहेलना कर दी। इसके स्थान पर 8 अगस्त, 1940 को लॉर्ड लिनलिथगो ने एक प्रस्ताव रखा जिसमें प्रमुख प्रावधान थे

  • भारतीयों को सम्मिलित कर युद्ध सलाहकार परिषद् की स्थापना।
  • वायसराय की कार्यकारिणी का विस्तार।
  • अल्पसंख्यकों को आश्वस्त किया गया कि सरकार ऐसी किसी संस्था को शासन नहीं सौंपेगी, जिसके विरुद्ध सशक्त मत हो।
  • भारत के लिए डोमिनियन स्टेट्स मुख्य लक्ष्य
  • युद्ध के पश्चात् संविधान सभा का गठन किया जाएगा, जिसमें मुख्यतः भारतीय अपने सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक धारणाओं के अनुरूप संविधान के निर्माण की रूपरेखा सुनिश्चित करेंगे।

क्रिप्स मिशन (1942)

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान मार्च, 1942 में ब्रिटिश सरकार ने प्रस्तावों की घोषणा के प्रारूप के साथ कैबिनेट मन्त्री स्टैफोर्ड क्रिप्स को भारत भेजा। प्रस्ताव के मुख्य बिन्दु थे

  • भारतीय संविधान की रचना भारतीयों द्वारा निर्वाचित संविधान सभा करेंगे। संविधान भारत को डोमिनियन प्रस्थिति और ब्रिटिश राष्ट्रकुल में बराकी की भागीदारी देगा।
  • सभी देशी रियासतों और प्रान्तों को मिलाकर एक संघ बनेगा।
  • कोई प्रान्त या देशी रियासत जो संविधान को स्वीकृत करने को तैयार नहो तो उस समय विद्यमान अपनी संवैधानिक स्थिति बनाए रखने के लिए स्वतन्त्र होगा और इस प्रकार सम्मिलित न होने वाले प्रान्तों से ब्रिटिश सरकार अलग संवैधानिक व्यवस्था कर सकेगी।

कैबिनेट मिशन (1946)

वेवेल योजना की असफलता के बाद फरवरी, 1946 में प्रधामन्त्री एटली ने भारत में राजनीतिक गतिरोध को दूर करने हेतु एक तीन सदस्यीय मण्डल भेजने की घोषणा की। इसमें ब्रिटिश कैबिनेट के तीन सदस्य-लॉर्ड पैथिक लॉरेन्स (भारत सचिव), सर स्टैंफोर्ड क्रिप्स (व्यापार बेड के अध्यक्ष) तथा ए वी अलेक्जेण्डर (एडमिरैलिटी के प्रथम लॉर्ड नौसेना मन्त्री) थे।

 कैबिनेट मिशन मार्च, 1946 से मई, 1946 तक भारत में रहा।

इसके प्रमुख प्रस्ताव थे

  • एक भारतीय संघ का गठन किया जाएगा जिसमें ब्रिटिश भारत और देशी रियासतें सम्मिलित होंगी। संघ के पास विदेश, रक्षा और संचार तीन विभाग होंगे और इन विभागों के लिए धन जुटाने का अधिकार संघ को होगा।
  • संघ से सम्बद्ध विषयों के अतिरिक्त सभी विषय तथा सभी अवशिष्ट अधिकार प्रान्तों में निहित होंगे।
  • संघ की एक कार्यपालिका एवं विधायिका होगी जिसमें ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों के प्रतिनिधि होंगे।
  • प्रान्तों को कार्यपालिका और विधायिका के साथ समूह बनाने की छूट होगी और प्रत्येक समूह प्रान्तीय विषयों का निर्धारण कर सकता है।
  • सभी दलों के सहयोग से शीघ्र ही एक अन्तरिम सरकार की स्थापना होगी जिसमें सभी विभाग भारतीय नेताओं के पास रहेंगे।
  • देश के संविधान निर्माण हेतु एक संविधान सभा का गठन होगा, जिसके अनुसार 10 लाख की जनसंख्या पर एक प्रतिनिधि चुने जाने का प्रावधान था।

अन्तरिम सरकार का गठन

24 अगस्त, 1946 को अन्तरिम सरकार के गठन की घोषणा हुई। इसमें जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 11 सहयोगियों के साथ 2 सितम्बर, 1946 को सरकार का गठन हुआ। मुस्लिम लीग ने अपने को सरकार से बाहर रखा हालाँकि उनके शामिल होने का विकल्प खुला रखा गया।

अन्ततः 26 अक्टूबर, 1946 को सरकार का पुनर्गठन होने पर मुस्लिम लीग के पाँच प्रतिनिधियों ने सरकार में शपथ ली। (कांग्रेस ने लीग के सदस्यों को शामिल करने हेतु अपने तीन सदस्यों-सैयद अली जहीर, शरतचन्द्र बोस, सर शफात अहमद खाँ से इस्तीफा दिलवाया) अन्तरिम सरकार में सम्मिलित होने के उपरान्त भी मुस्लिम लीग ने ‘संविधान सभा’ में शामिल होने से मना कर दिया।

मुस्लिम लीग की अनुपस्थिति में ही 11 दिसम्बर, 1946 को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा का गठन कर दिया गया। मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का विरोध करने के साथ-साथ पाकिस्तान की माँग को और अधिक प्रखर रूप में रखा।

भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम (1947)

3 जून, 1947 की माउण्टबेटन योजना के अनुसार ब्रिटिश संसद में भारतीय विधेयक का प्रारूप तैयार किया और इस विधेयक को ब्रिटिश संसद द्वारा बहुमत से पारित करके भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम, 1947 के नाम से स्थापित किया। 18 जुलाई, 1947 को इस अधिनियम को सम्राट द्वारा स्वीकृति प्रदान की गई।

भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम, 1947 के मुख्य प्रावधान निम्न हैं

  • इसमे उपबन्ध किया गया कि 15 अगस्त, 1947 से दो स्वतन्त्र डोमिनियन स्थापित किए जाएँगे जो भारत और पाकिस्तान होंगे।
  • पूर्वी बंगाल, सिन्ध, पश्चिमी पंजाब और असम का सिलचर जिला पाकिस्तान में सम्मिलित होना था
  • भारत सरकार अधिनियम, 1935 तब तक इन दोनों डोमिनियन राज्यों को शासन चलाने में सहयोग देगा, जब तक कि नए संविधान को दोनों राज्य अपना नहीं लेते। अनिवार्यता के अनुसार अधिनियम में परिवर्तन भी किया जा सकता है लेकिन इसके लिए गवर्नर जनरल की अनुमति आवश्यक होगी।
  • प्रत्येक डोमिनियन के लिए पृथक् गवर्नर जनरल होगा और उसे महामहिम द्वारा नियुक्त किया जाएगा।
  • उन समस्त अनुबन्धों और सन्धियों को समाप्त कर दिया जाएगा जो महामहिम की सरकार तथा भारतीय राजाओं के मध्य हुए थे। शाही उपाधि से ‘भारत का सम्राट’ शब्द समाप्त हो जाएगा।
  • भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम, 1947 को क्रियान्वित करने के लिए गवर्नर-जनरल को अस्थायी आदेश जारी करने का अधिकार प्रदान किया गया।

इस प्रकार भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम, 1947 के द्वारा 14-15 अगस्त को भारत तथा पाकिस्तान नामक दो डोमिनियनों का गठन कर दिया गया।

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