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संविधानवाद (Constitutionalism) क्या है? – अवधारणा, अर्थ एवम् इसका विकास

संविधानवाद‘ को एक आधुनिक अवधारणा के रूप में स्वीकारा जाता है; किन्तु वास्तव में यह लगभग उतनी ही प्राचीन अवधारणा है जितनी कि राजसत्ता के प्रयोग की सीमाओं को तय करने की समस्या पर विचार करने की परम्परा है। जब प्रारम्भिक (आदिम) समाजों में राजसत्ता का उदय हुआ तो अनुमान लगाया जाता है कि राजसत्ता के प्रति दो प्रकार की स्थायी प्रतिक्रियाएँ हुई

1. सार्वजनिक हित की रक्षा एवं वृद्धि के लिए राजसत्ता का बने रहना अत्यन्त आवश्यक है।

2. शासक (राजा) द्वारा राजसत्ता का निरंकुश, अमर्यादित एवं स्वेच्छाचारी प्रयोग व्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं सार्वजनिक हित के लिए घातक हो सकता है: अतः राजसत्ता के प्रयोग की सीमाएँ एवं मर्यादाएँ भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। राजसत्ता के प्रति आदिम समाजों की इस दूसरी प्रतिक्रिया ने ही उस राजनीतिक चिन्तन की परम्परा को जन्म दिया जिसका विकास आधुनिक युग तक संविधानवाद’ के रूप में हुआ है।

संवैधानिकतावाद वह धारणा है जिसमें राज्य की प्रभुसत्तापूर्ण शक्ति का प्रयोग सरकार को कुछ मौलिक नियमों, कानूनों और सिद्धान्तों के अनुसार करना होता है तथा सरकार अपनी शक्तियों का प्रयोग सीमाओं के अधीन करती है।

प्राचीनकाल से ही संविधानवाद का एक निश्चित दार्शनिक आधार रहा है, जिसे हम आधुनिक युग में उदारवादी दार्शनिक आधार भी कह सकते हैं। प्रारम्भ से ही यह मान्यता रही है कि राजसत्ता की समस्त पवित्रता एवं उपयोगिता के बावजूद उसे पूर्णतः अनियन्त्रित एवं अमर्यादित नहीं छोड़ा जा सकता है।

आधुनिक युग की विशेषता यह है कि इसने लौकिक विधि (मानव द्वारा निर्मित विधि) को ही मुख्य रूप से संविधानवाद का आधार माना है, जिसे हम संविधानवाद की विधिक (कानूनी) अवधारणा कह सकते हैं। किन्तु व्यवहार में स्वयं लौकिक विधि की पृष्ठभूमि में सदैव ही एक नैतिक या मूल्यात्मक दृष्टिकोण भी मौजूद रहता है, अतः विधि के साथ ही मूल्य को भी संविधानवाद का आधार माना जाता है। इस प्रकार संविधानवाद विधिक (कानूनी) अवधारणा के साथ ही मूल्यात्मक अवधारणा भी है।

संविधानवाद का अर्थ

सीमित अर्थ में संविधानवाद का अर्थ है एक ऐसी अवधारणा जो संविधान के अनुसार शासन पर बल देती हैकौरी व अब्राहम के अनुसार, “स्थापित संविधान के अनुसार शासन किए जाने को संविधानवाद माना जाता है।” किन्तु यह सम्भव है कि स्वयं संविधान का निर्माण ही निरंकुशतन्त्र की स्थापना करता हो, तब उसे संविधानवाद कहना उचित नहीं होगा।

वस्तुतः संविधानवाद की एक पूर्व शर्त संवैधानिक शासन की स्थापना है, अर्थात् शासन (सरकार) ऐसा होना चाहिए जिसकी शक्तियाँ सीमित हों और वह अपने कार्यों के लिए जन-समूह (शासित वर्ग) के प्रति उत्तरदायी हो।

उदाहरण के लिए नाजी जर्मनी में संविधान तो था, किन्तु वहाँ संबैधानिक शासन नहीं था। वहाँ नाजी नेता हिटलर का निरंकुश शासन था, जिसे साधारणतया ‘हिटलरशाही‘ के रूप में जाना जाता है। यही स्थिति फासिस्ट इटली की भी थी।

संविधानवाद की धारणा के तत्त्व

संविधानवाद के अर्थ एवं परिभाषाओं के आधार पर संविधानवाद की धारणा की मुख्य बातें इस प्रकार हैं

  • संविधानवाद व्यक्ति के स्थान पर संस्थाओं के माध्यम से शासन की व्यवस्था चाहता है।
  • संस्थाओं के संगठन, उनकी शक्तियों एवं कार्यों को विधि द्वारा निश्चित होना चाहिए।
  • विधि ऐसी होनी चाहिए जो व्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं समानता का आदर करती हो और जिसका उद्देश्य व्यक्ति के हित एवं सामाजिक कल्याण की वृद्धि करना हो।
  • संविधानवादी धारणा का मूर्त रूप केवल ऐसे संविधान को माना जा सकता है, जिसमें संविधानवाद के उपरोक्त लक्षण पाए जाते हो।

संविधानवाद का विकास

यूनानी संविधानवाद

उनके यहाँ नगर-राज्य प्रणाली प्रचलित थी जिसमें नागरिकता का उपभोग केवल स्वतन्त्र व्यक्तियों के लिए ही था। अधिकांश नगर-राज्य में प्रत्यक्ष लोकतान्त्रिक प्रणाली थी यद्यपि स्पार्टा सैनिक शासन के अधीन था। प्लेटो और अरस्तू जैसे ग्रीक दार्शनिकों ने नैतिक दृष्टिकोण से राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन किया।

अभ्रष्टा और अभ्रष्टय दार्शनिक नरेश के सर्वशक्तिमान शासन के अधीन प्लेटो का आदर्श राज्य एक ‘काल्पनिक जगत’ लगने लगा, जबकि अरस्तू के श्रेष्ठ, सम्भव और व्यवहार्य राज्य (जिसमें शासन व्यवस्था भी शामिल है) एक मध्यम श्रेणी का राज्य लगने लगा जो “अप्राप्य या कम-से-कम क्षणिक श्रेष्ठ और निकृष्ट के बीच का रूप हो गया।” यह सच है कि प्लेटो ने अतिमानव के आदर्श राज्य के बारे में विचार किया व अरस्तू ने विधि के अतिविज्ञान के अधीन एक व्यवहार्य राज्य के सम्बन्ध में विचार प्रस्तुत किया, लेकिन दोनों ही नगर-राज्य के क्षितिज के परे न देख सके और इसका परिणाम यह हुआ कि ग्रीक संविधानवाद इतिहास की बदलती हुई परिस्थितियो के साथ कदम मिलाकर न चल सका।

रोमन संविधानवाद

रोमन साम्राज्य की स्थापना के साथ बौद्धिक जीवन और अधिक विस्तृत हुआ और इसका विभिन्न शाखाओं में वितरण हुआ। आचारशास्त्र राजनीति की जंजीरों से मुक्त हुआ; समाज और राज्य अब एक-दूसरे के समतुल्य नहीं रहे और राज्य के साथ-साथ व्यक्ति भी चिन्तन का विषय बना।

रोम के साम्राज्यी शासकों ने सरकार के निर्धारित उपकरण के रूप में अपने संविधान का विकास किया। 500 ई. पू. के आसपास राजतन्त्र की समाप्ति पर ऐसे गणराज्य का उदय हुआ जिसका मिश्रित संविधान था, काउन्सिलों के पद, समाप्त की गई व्यवस्था के राजतन्त्रीय तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करते थे, सिनेट, कुलीन तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करती थीं।

मध्ययुगीन संविधानवाद

रोमन साम्राज्य के विघटन के पश्चात् इसके स्थान पर कई सामन्तीय राज्यों की स्थापना हुई। सामन्तीय युग संक्रमण विकेन्द्रीयकरण और विघटन का युग था। राजनीतिक दृष्टि से इसने राज्य विहीनता के युग का प्रदर्शन किया, क्योंकि हरेक सरदार युद्ध का संचालन कर सकता था, व्यापार का विनियमन कर सकता था, मुद्राएँ घड़ सकता था, अथवा न्यायिक दायित्वों का निर्वहन कर सकता था।

पुनर्जागरण काल में संविधानवाद

पुनर्जागरण काल में मानववादी एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण उभरकर सामने आया। यूरोप के लोगों ने जीवन के प्रति नई चेतना का विकास कर लिया और नमें आजादी के प्रति नई भावना आई।

कला, साहित्य और विज्ञान के क्षेत्रों में नई उपलब्धियों ने मध्ययुगीन रूपों को परे फेंक दिया और लोग नई मूल्यों की बोज करने लगे। प्राचीन जगत के प्रतिमानों से प्रेरणा ग्रहण की गई।

धर्म सुधारवाद सार्वभौमिकता और पाण्डित्यवाद की मध्ययुगीन संकल्पनाओं का अन्त कर दिया और आधुनिक लौकिक सर्वोच्य सत्तावादी राष्ट्र-राज्यों की स्थापना करके एक-दूसरे के कार्य को प्रतिपरित किया। बहराहाल, निरंकुश राजतन्त्रवाद उभरकर आया जो सांविधानिक राज्य की गति में बाधक हुआ। पोप की अपरिहार्य स्थिति का स्थान कई निरंकुश शासकों ने ले केलिया जिन्होंने लोगों को मजबूर किया कि वे इस मामले को अन्तिम तौर से निपटाने के लिए क्रान्ति का सहारा लें।

मैकियावली के ग्रन्थ ‘प्रिस‘ और बोडिन के ‘रिपब्लिक‘ आकर्षण के प्रमुख स्रोत बने। इसका परिणाम यह हुआ कि पोपशाही के ह्रास के पश्चात् इंग्लैण्ड, फ्रांस, इटली, स्पेन और जर्मनी में निरंकुश राजतन्त्रों की स्थापना की गई।

इंग्लैण्ड में संविधानवाद

1640-48 ई. का गृहयुद्ध इस आधार पर शुरू हुआ कि कानून और शासक में किसका स्थान उच्च है। राजा की पराजय और लोगों की विजय ने लोगो की सर्वोच्चता की पुष्टि की, जो कुछ गृहयुद्ध के दौरान न हो सका उसे 1688 ई. की गौरवमय क्रान्ति ने पूरा कर दिखाया जिसने संसद की सवर्वोच्चता का शिलान्यास किया।

शासन के लोकतान्त्रीकरण का आन्दोलन जारी रहा इसका परिणाम यह हुआ कि 1832, 1867 और 1884 ई. में महान् सुधार अधिनियम पारित किए गए और अधिक-से-अधिक लोगों को मतदान का अधिकार प्रदान किया गया। 1911 ई. के संसदीय अधिनियम ने हाउस ऑफ लॉर्ड्स को पंगु बनाया और 1949 ई. में इसके संशोधन ने गैर-धन विधेयकों के पालन के मामलों में इस सदन के प्राधिकार के क्षेत्र को और भी कम कर दिया।

फ्रांस में संविधानवाद

रूसो के ‘सौशल कॉण्ट्रेक्ट’ की आवाज 1789 ई. में राष्ट्रीय असेम्बली द्वारा स्वीकार किए गए ‘मानव अधिकार की घोषणा’ में स्पष्ट तरह से गूंजती सुनाई पड़ती है। इस घोषणा-पत्र में अभिषिक्त अधिकारों के आधार पर बनाए गए 1791 ई. के संविधान को अधिक समय तक नहीं चलाया जा सका क्योंकि जिस विधानसभा को इस शासन यन्त्र (संविधान) के अनुच्छेदों के अधीन न बनाया गया, वह अराजकता की उस स्थिति को समाप्त करने में सफल न हो संको, जो उस समय देश में विद्यमान थी।

फ्रांस के गणतन्त्रीय संविधान की विशेषताएँ

  1. लिखित संविधान
  2. लोकतान्त्रिक प्रकार की सरकार
  3. शक्तिशाली अध्यक्षता
  4. सरकारी व्यवस्थाएँ
  5. कठोर संविधान
  6. धर्म निरपेक्षवाद
  7. दो सदनीय विधानमण्डल
  8. गण्तन्त्रीय प्रकति

अमेरिका में संविधानवाद

1776 ई. के ‘स्वतन्त्रता के घोषणा-पत्र’ में इस बात का स्पष्ट ढंग से उल्लेख किया गया कि “सभी बराबर बनाए गए हैं, उनके निर्माता ने उन्हें कुछ अदेय अधिकार प्रदान किए हैं, इन अधिकारों को प्राप्त करने के लिए सरकारों की स्थापना की जाती है, जो शासितों की स्वीकृति से अपनी उपयुक्त शक्तियाँ प्राप्त करती है; जब भी कोई सरकार इन लक्ष्यों को समाप्त करने पर तुल जाती है, तो लोगों का यह अधिकार हो जाता है कि वे या तो इसे समाप्त कर दें, या इसमें परिवर्तन कर दें, या इसमें परिवर्तन करके एक नई सरकार का निर्माण करें।

प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् संविधानवाद

युद्ध की समाप्ति पर लोकतन्त्र के लिए सुरक्षित बनाए गए विश्व में संविधानवाद की समृद्धि देखने की बजाए इसने संविधानवाद के विरुद्ध गम्भीर प्राधिकारवादी प्रतिक्रिया देखी। इसी प्रकार, उत्तरदायी और प्रतिनिधि सरकारों की दिशा में ऐसी प्रतिक्रिया देखने में आई। इस बारे में रूस में साम्यवाद, इटली में फासीवाद और जर्मनी में नाजीवाद के उदय को ठोस उदाहरणों के रूप में पेश किया जा सकता है। ऐसे राज्य में एक ही राजनीतिक दल का अस्तित्व होता है और सर्वाधिकारवादी व्यवस्था आर्थिक, सामाजिक और यहाँ तक कि धार्मिक जीवन के हरेक पहलू पर नियन्त्रण और उनका दिशा-निर्देशन करने के लिए राजनीतिक तन्त्र का इस्तेमाल करती है।

पहले विश्वयुद्ध के पश्चात् सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात ‘लीग ऑफ नेशन्स’ के रूप में एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना थी जिसका उद्देश्य यह था कि सवर्वोच्च सत्तात्मक राज्य के बीच झगड़ों को सांविधानिक ढंग से रोका जाए या फिर शान्तिपूर्ण ढंग से इनका निपटारा किया जाए। संविधानवाद के विकास में यह एक नई और अभूतपूर्ण अवस्था थी। इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रवाद के रूप में संविधानवाद की एक और विशेषता का विकास हुआ।

दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात् संविधानवाद

जबकि इटली, जर्मनी और जापान की तानाशाही सरकारें दूसरे विश्वयुद्ध में समाप्त हो गईं, फिर भी सोवियत संघ की सरकार का नमूना न केवल जीवित ही रहा बल्कि विश्व के अन्य देशों में इसका प्रसार भी हुआ। इसके परिणामस्वरूप, संविधानवाद का एक नया नमूना अस्तित्व में आया जिसे विश्व के सभी साम्यवादी देशों में देखा जा सकता है। इस युद्ध के बाद कई देश आजाद हुए जिन्होंने अमेरिकी या ब्रिटिश संविधान के नमूने या इन दोनों के विचित्र मिश्रण को अपनाने का प्रयास किया।

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