गाँधी एक अद्वितीय राष्ट्रीय व्यक्तित्व थे। (महात्मा गांधी – आधुनिक राजनीतिक विचार) वह एक भविष्यवक्ता, एक हिन्दू धर्म सुधारक, एक समाज सुधारक और एक राष्ट्रवादी व्यक्ति थे, जो भारतीय स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे। भारत के इस सन्त ने सत्य और अहिंसा के परम अस्त्र लेकर जीवन पर्यन्त ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ों पर प्रहार किया। उसने भौतिकवाद की ओर अग्रसर इस संसार को नवीन सन्देश दिया।
सामान्य परिचय
गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 में राजकोट में हुआ था। उनके पिता करमचन्द गाँधी राजकोट के दीवान थे और माता पुतलीबाई धार्मिक प्रवृत्ति की थी। 12 वर्ष की आयु में ही उनका विवाह कस्तूरबा से हो गया था। 1887 ई. में वे वकालत करने इंग्लैण्ड चले गए और 1891 ई. में वकील बनकर भारत लौटे। लेकिन उन्हें शीघ्र ही दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। अफ्रीका में उन्होंने भारतीयों पर हो रहे अंग्रेजी अत्याचार को देखा और उसका विरोध किया। उन्हें मोरिट्जबर्ग में रेलवे स्टेशन पर प्रथम श्रेणी के डिब्बे में यात्रा करने के कारण ट्रेन से उतार दिया गया। गाँधीजी ने अंग्रेजी शासन के इन अत्याचारों का सत्याग्रह पद्धति द्वारा विरोध किया और भारतीयों को अधिकार दिलाए।
9 जनवरी, 1915 को गाँधीजी भारत लौटे और अपना राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले को बनाया। फिर 1916 ई. में लखनऊ अधिवेशन में भाग लिया, उसी वर्ष उन्होंने अहमदाबाद के पास साबरमती आश्रम स्थापित किया। 1917 ई. में भारत में अपना पहला आन्दोलन चम्पारण, 1918 ई. में सर्वप्रथम सत्याग्रह अहमदाबाद, 1918 ई. में खेड़ा जैसे आन्दोलनों का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। उन्होंने रॉलेट एक्ट, जलियाँवाला बाग काण्ड का विरोध किया। खिलाफत आन्दोलन के नेतृत्व के लिए भी मुसलमानों ने उन्हें आमन्त्रित किया। उन्होंने अंग्रेजी शासन का विरोध करने के लिए असहयोग आन्दोलन, सचिनय – अवज्ञा, भारत छोड़ो आन्दोलन चलाया और भारतीयों को अंग्रेजी शासन से 1947 ई. में मुक्ति दिलाई। गाँधीजी भारत विभाजन के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने विभाजन का विरोध करते हुए उपवास किया। इसी दौरान एक अतिवादी नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 को उनकी हत्या कर दी। गाँधीजी को सम्मान प्रदान करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने महात्मा की उपाधि दी व सुभाषचन्द्र बोस ने राष्ट्रपिता की।
गाँधीवाद (Gandhism)
गाँधीवाद का तात्पर्य है गाँधीजी के विचारों, सिद्धान्तों और उनके आदर्शों का समूहीकरण। गाँधीजी के विचारों को लोग गाँधीवाद कहते हैं। गाँधीजी का कहना था कि गाँधीवाद जैसी कोई वस्तु नहीं है न ही में कोई सम्प्रदाप चलाना चाहता हूँ। मैंने शाश्वत सत्यों को अपने नित्य के जीवन और प्रश्नों से सम्बद्ध करने का प्रयास अपने ढंग से किया है। आप इसे गाँधीवाद न कहें, इसमें वाद जैसा कुछ भी नहीं है। गाँधीजी के विचारों को ‘गाँधीवाद’ कहा जा सकता है। उन्होनें दक्षिण अफ्रीका और भारत के जन आन्दोलनों को ने एक विशिष्ट पद्धति और दृष्टिकोण से संचालित किया। गाँधीजी ने इतिहास में पहली बार सत्य, अहिंसा और प्रेम के आध्यात्मिक सिद्धान्तों का राजनीति के क्षेत्र में इतने विशाल पैमाने पर प्रयोग किया और सफलता प्राप्त की।
गाँधीजी से सम्बन्धित अन्य विद्वानों की पुस्तकें
- शम्भूरत्न त्रिपाठी – गाँधी धर्म और समाज
- एन के बोस – स्टडीज इन गाँधीज्म
- स्टेनले जोन्स – कनफिलिक्ट फिलॉसफी गाँधीज्म
- बी पी सीतारमैय्या – गाँधी एवं गाँधीवाद
- J b कृपलानी – द गाँधीयन वे (The Gandhian way)
- के एम मुंशी – Gandhiji the Master: Follower the Gandhi
- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद – At the Feet of Mahatma Gandhi
- डी जी तेन्दुलकर – महात्मा गाँधी ऑफ एम के गाँधी
- जी एन धवन – द पॉलिटिकल फिलॉसफी ऑफ महात्मा गाँधी
- के जी मशरूवाला – गाँधी-द लॉस्ट फेज
गाँधीजी का दर्शन मार्क्सवाद तथा लेनिनवाद की तरह नहीं है परन्तु उनके विचारों में वे समस्त विशिष्टताएँ हैं जो एक वाद के लिए आवश्यक होती है। गाँधीजी का एक जीवन-दर्शन है तथा उनके कुछ सिद्धान्त है जिनसे राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के निराकरण की एक विशिष्ट विचारधारा और तकनीक का निर्माण किया गया है। अतः गाँधीजी के विचारों को गांधीवाद कहा जाए तो अनुचित नहीं होगा।
गाँधीजी की कृतियाँ (Gandhiji’s works)
गाँधी ने अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन प्रमुख रूप से दो पुस्तकों ‘हिन्द स्वराज’ तथा ‘अपनी आत्मकथा’ में किया है जिसका नाम ‘मेरे सत्य के साथ प्रयोग’ रखा गया है। उनकी अन्य रचनाएँ हैं- शान्ति और युद्ध में अहिंसा नैतिक धर्म, सत्याग्रह सत्य ही ईश्वर है, सर्वोदय, खादी, आत्मशुद्धि, गीताबोध, राष्ट्रवाणी आदि। इसके अतिरिक्त गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका में इण्डियन ओपीनियन नामक साप्ताहिक पत्र का तथा भारत में यंग इण्डिया हरिजन, नवजीवन, हरिजन सेवक, हरिजन बन्धु आदि पत्रों का सम्पादन करते हुए अपने विचारों का प्रतिपादन किया। 1969 ई. में गाँधी शताब्दी वर्ष कार्यक्रम के अन्तर्गत भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा गाँधी के सभी लेखों और भाषणों के प्रमाणित संग्रह कई खण्डों में प्रकाशित किए गए हैं।
गाँधीजी के राजनीतिक विचार (Gandhiji’s political views)
गाँधीजी के राजनीतिक विचारों का अध्ययन निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है
गाँधीजी के धर्म और राजनीति पर विचार
धर्म की अवधारणा
धर्म के बारे में गाँधीजी का कहना था “मैं विश्व के सभी महान् धर्मों के आधारभूत सत्यता में विश्वास करता हूँ आधार पर वे सब एक थे और सभी एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं।” गाँधीजी के अनुसार जितने मत हैं उतने ही अधिक धर्म हैं। प्रत्येक मत की दूसरे से भिन्न ईश्वर की अवधारणा अलग थी – फिर भी वे उसी ईश्वर को मानते हैं। उन्होंने कहा कि धर्म का आचरण से अन्तर • किया जाना चाहिए। आधारभूत नैतिक अवधारणाएँ सभी धर्मों में एक समान हैं। धर्म से मेरा अभिप्राय आचरण नहीं है परन्तु नामकरण से क्या फर्क पड़ता है।
राजनीति की अवधारणा (Concept of Politics)
गाँधीजी के अनुसार, राजनीति मानव के जीवन का प्रमुख भाग है। हालांकि उनका मानना है कि राज्य की शक्ति में वृद्धि होने से व्यक्ति की शक्ति कम हो जाती है। लेकिन वे राजनीति को एक ऐसे रूप में देखते हैं जो लोगों के जीवन को बेहतर बनाने का प्रयास करती है। उन्होंने स्पष्ट किया, “सामाजिक सुधार का मेरा कार्य किसी भी तरह से राजनीति से कम नहीं है। वास्तविकता में जब मैंने देखा कि मेरा सामाजिक कार्य कुछ सीमा तक राजनीतिक कार्य के बिना होना सम्भव नहीं है तो मैंने राजनीति को अपनाया और यह केवल उस सीमा तक सामाजिक कार्य में सहायक होता है।” राजनीति मनुष्य के सभी कार्यों को प्रभावित करती है। अतः राजनीतिक कार्य जीवन तथा व्यवसाय के विभिन्न अंगों से अत्यन्त निकट होते हैं। गाँधीजी राजनीति में जिन बातों से घृणा करते थे, वह थीं सत्ता का संकेन्द्रण और राजनीतिक सत्ता के लिए हिंसा का प्रयोग।
धर्म और राजनीति के मध्य सम्बन्ध
गाँधीजी का कहना था कि धर्म को राजनीति से पृथक् नहीं किया जा सकता है। उनका कहना था कि आत्मानुभूति के रूप में जीवन का निश्चित आधारभूत उद्देश्य राजनीति, यदि धार्मिक कार्यों को करने में समर्थ नहीं बनाता है तो वह सार्थक नहीं है। उनका मानना था “मेरे लिए धर्म की राजनीति टोपी पूर्णतः गन्दगी है, इसे दूर फेंक देना चाहिए।”
उनका मानना था कि राजनीति को ऐसे माध्यम के रूप में लिया जाए जिसके माध्यम से मनुष्य नीतिपरक और नैतिक नियमों के मूर्तरूप के रूप में हिंसा और धर्म के बिना भी अपने आप पर नियन्त्रण कर सके। उन्होंने राजनीति में उस रूप में भाग लेने पर जोर दिया जिसका स्वरूप धार्मिक हो। उनका कहना था “मेरे लिए धर्म के बिना राजनीति नहीं है, अन्धविश्वासों और बन्धनों का धर्म नहीं, वह धर्म नहीं, जो घृणा और संघर्ष पैदा करता है परन्तु सहिष्णुता और सार्वदेशिक धर्म नहीं।” गाँधीजी के अनुसार, राजनीति से तात्पर्य जहाँ लोग अन्य लोगों की सेवा करने के प्रयोजन से सार्वजनिक कार्यों में भाग लेते हैं। उनके लिए सभी राजनीतिक कार्यों का सम्बन्ध स्वतः ही प्रत्येक के कल्याण से था।
गाँधीजी के सत्य और अहिंसा पर विचार
सत्य की अवधारणा (Concept of truth)
गाँधीजी के मतानुसार, सत्य सत् शब्द से निकला है। इसका अर्थ है अस्तित्व या होना। सत्य को ईश्वर या ब्रह्म कहने का कारण है कि सत्य वही है जिसकी सत्ता होती है, जो सदा टिका रहता है। ब्रह्म या परमात्मा की सत्ता तीनों कालों में बनी रहती है अतः सत्य है। गाँधीजी अपने जीवन का ध्येय सत्य का शोध करना समझते हैं। उन्होंने अपनी आत्मकथा का नाम मेरे सत्य के प्रयोग रखा है। सामान्यतः सत्य शब्द का अर्थ केवल सच बोलना ही समझा जाता है लेकिन गाँधीजी ने सत्य का व्यापक अर्थ लेते हुए बार-बार यह आग्रह किया है कि विचार में, वाणी में और आचार में सत्य का होना ही सत्य है। गाँधीजी की दृष्टि में सत्य की आराधना ही सच्ची भक्ति है।
गाँधीजी के अनुसार, दैनिक जीवन में सत्य सापेक्ष है किन्तु सापेक्ष सत्य के माध्यम से एक निरपेक्ष सत्य पर पहुँचा जा सकता है और यह निरपेक्ष सत्य ही जीवन का चरम लक्ष्य है। इसकी प्राप्ति ही मनुष्य का परम धर्म है।
अहिंसा सम्बन्धी अवधारणा (Concept of Nonviolence)
प्राचीनकाल में भी भारत में अहिंसा का अत्यधिक महत्त्व रहा है। योग दर्शनकार पतंजलि ने आत्मशुद्धि की साधना के पाँच यमों में अहिंसा को पहला स्थान दिया है। जैन नामक अहिंसा का अत्यधिक महत्त्व रहा है। महात्मा गाँधी पर इंग्लैण्ड से लौटने के बाद रामचन्द्र नामक जैन विद्वान् का बड़ा प्रभाव पड़ा। भगवान बुद्ध ने घोषणा की थी कि वैर का अन्त वैर से नहीं बल्कि प्रेम से होता है। गाँधीजी ने उपरोक्त भारतीय परम्परा से तथा बाइबिल के पर्वत प्रवचन और टॉलस्टॉय के ग्रन्थों से अहिंसा के सिद्धान्त को ग्रहण किया। किन्तु उन्होंने अनेक क्षेत्र में इसका व्यावहारिक प्रयोग करके इसकी सफलता को निर्विवाद रूप से प्रमाणित किया।
अहिंसा का अर्थ – गाँधीजी के लिए अहिंसा का अर्थ अत्यन्त व्यापक है जिसमें कार्य ही नहीं अपितु विचार में भी सावधान रहना आवश्यक है।
अहिंसा के पक्ष – अहिंसा के दो पक्ष हैं- नकारात्मक और सकारात्मक । किसी प्राणी को काम, क्रोध तथा विद्वेष से वशीभूत होकर हिंसा न पहुँचाना इसका नकारात्मक रूप है। इससे अहिंसा का पूरा स्वरूप समझ में नहीं आता है। अहिंसा के यथार्थ स्वरूप से हमें इसके भावनात्मक पक्ष का पता लगता है। भावात्मक अथवा सकारात्मक स्वरूप वाली अहिंसा के स्वरूप से हमें इसके भावात्मक पक्ष का पता लगता है। भावात्मक अथवा सकारात्मक स्वरूप वाली अहिंसा को सार्वभौमिक प्रेम और करुणा की भावना कहा जाता है। इसके चार मूल तत्त्व-प्रेम, अन्याय का विरोध और वीरता हैं।
अहिंसा की तीन अवस्थाएँ
गाँधीजी ने अहिंसा की निम्न तीन अवस्थाएँ बताई हैं
जागृत अहिंसा (awakened non-violence): इसे वीर पुरुषों की अहिंसा कहते हैं। यह वह अहिसा है जो किसी दुःखपूर्ण आवश्यकता से पैदा न होकर अन्तरात्मा की स्वाभाविक पुकार से जन्म लेती है। इसको अपनाने वाले अहिंसा को बोझ समझकर स्वीकार नहीं करते वरन् आन्तरिक विचारों की उत्कृष्टता या नैतिकता के कारण स्वीकार करते हैं। सबल व्यक्ति इसे अपनाते हैं और वे शक्ति सम्पन्न होकर भी शक्ति का तनिक भी प्रयोग नहीं करते।
औचित्यपूर्ण अहिंसा (justified nonviolence): यह इस प्रकार की अहिंसा है जो जीवन के किसी क्षेत्र में विशेष आवश्यकता पड़ने पर औचित्यानुसार एक नीति के रूप में अपनाई जाती है। यह अहिसा निर्बल व्यक्तियों की अहिंसा है या असहाय व्यक्तियों का निष्क्रिय प्रतिरोध। इसमें नैतिक विश्वास के कारण नहीं वरन् निर्बलता के कारण ही अहिंसा का प्रयोग किया जाता है। यद्यपि यह अहिंसा जागृत अहिंसा की भाँति प्रभावशाली नहीं है वरन् फिर भी इसका पालन ईमानदारी, सच्चाई और दृढ़ता से किया जाए तो इससे कुछ सीमा तक वांछित लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है।
कायरों की अहिंसा (nonviolence of cowards): कई बार डरपोक तथा कायर लोग भी अहिंसा का दम्भ भरते है। गाँधीजी ऐसे लोगों की अहिंसा को अहिंसा न मानकर निष्क्रिय हिसा मानते हैं। उनका विश्वास था कि कायरता और अहिंसा पानी और आग की भाँति एक साथ नहीं रह सकते। अहिंसा वीरों का धर्म है और अपनी कायरता को अहिंसा की ओट में छिपाना निन्दनीय तथा घृणित है। यदि कायरता और हिंसा में से किसी एक का चुनाव करना हो तो गाँधीजी हिंसा को स्वीकार करते हैं।
अहिंसा की श्रेष्ठता (superiority of nonviolence)
गाँधीजी इतिहास के आधार पर अहिसा की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हैं। द्वन्द्वात्मक संघर्ष में विश्वास रखने वाले कार्ल मार्क्स से सर्वथा विपरीत, वे मानव समाज के इतिहास को उसकी अहिंसा का निरन्तर अग्रगामी विकास मानते हैं। आदिम जातियों के बारे में कहा जाता है कि वे नर मांस भक्षी थे किन्तु बाद में मनुष्यों ने मनुष्यों का मांस खाना अनुचित समझा।
शिकार द्वारा पशुओं के मांस से उदर पूर्ति करने लगे। कुछ समय बाद मानव ने आखेट द्वारा आहार प्राप्त करने की पद्धति का परित्याग किया क्योंकि निरन्तर भटकते रहने वाले शिकारी जीवन से वह ऊब गया था। अब उसने पशुओं को मारने के स्थान पर उनका पालन करना तथा खेती करना शुरू कर दिया। इससे उसके जीवन में स्थिरता आई, गाँवों नगरों-राष्ट्रों तथा सभ्यता का विकास हुआ।
ऐतिहासिक विकास के अतिरिक्त अहिंसा अन्य कई कारणों से भी श्रेष्ठ है यथा
पहला कारण: यह है कि यह आत्मिक शक्ति है जो छोटे-से-छोटे तथा कमजोर से कमजोर बच्चों और बूढ़ों में भी पाई जाती है। शस्त्रों द्वारा हिंसात्मक लड़ाई केवल नौजवान ही लड़ सकते हैं किन्तु प्रेम की शक्ति का प्रयोग एक अत्यन्त बूढ़ी और दुर्बल माँ अपने बलवान किन्तु पथभ्रष्ट बेटे पर करके उसे सन्मार्ग पर ला सकती है। प्रेम की शक्ति का प्रयोग पशुओं पर भी हो सकता है।
दूसरा कारण: अहिंसा का सतत एवं स्वतः क्रियाशील होना है। इसके प्रयोग के लिए हमें शारीरिक शक्ति का सहारा नहीं लेना पड़ता है। शारीरिक शक्ति का प्रयोग करने वाले को किसी-न-किसी प्रकार के विश्राम की आवश्यकता होती है परन्तु अहिंसा व्रतधारी के लिए विश्राम आवश्यक नहीं है क्योंकि उसको किन्हीं बाह्य शस्त्रों का प्रयोग न करके हृदय के भीतर सदैव कार्य करने वाली प्रेम की भावना का प्रयोग करना है।
तीसरा कारण: यह है कि अहिंसा का आत्मबल शत्रु पर अचेतन अज्ञात एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालता है और यह शस्त्र बल की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होता है। शस्त्र बल रखने वाले की कार्यवाही तात्कालिक एवं क्षणिक प्रभाव डालने वाली होती है किन्तु अहिसा और प्रेम का प्रभाव अप्रत्यक्ष एवं स्थायी होता है।
चौथा कारण: हिसा की विफलता और अहिंसा की निश्चित सफलता है। अहिंसा और प्रेम कुछ समय के लिए विफल हो सकते हैं परन्तु उनकी अन्तिम सफलता निश्चित है, क्योंकि अहिंसा और प्रेम में पत्थर जैसे दिलों को भी पिघलाने की सामर्थ्य है।
गाँधीजी के सत्याग्रह सम्बन्धी विचार (Gandhiji’s thoughts regarding Satyagraha)
गाँधीजी ने अहिंसा के सिद्धान्त को मूर्त रूप देने के लिए राजनीतिक क्षेत्र में जिस कार्य पद्धति का प्रयोग किया वह सत्याग्रह है। इसके नाम और मौलिक सिद्धान्तों का विकास दक्षिण अफ्रीका में किया गया। वहाँ की गोरी सरकार भारतीयों के प्रति अन्यायपूर्ण कानून पास कर रही थी। इससे वहाँ बसे भारतीयों में तीव्र रोष व असन्तोष था। उन्होंने गाँधीजी के नेतृत्व में इस अन्याय का अहिंसात्मक प्रतिरोध करने का निश्चय किया।
उस समय इस आन्दोलन को निष्क्रिय प्रतिरोध का नाम दिया गया, किन्तु गाँधीजी द्वारा प्रतिपादित विचारों का इसमें पूरा समावेश नहीं होता था। आगे चलकर श्री मदनलाल गाँधी ने सत्यनिष्ठा शब्द सुझाया। इसका अर्थ है अच्छे काम में निष्ठा। गाँधीजी को यह शब्द पसन्द आया। किन्तु वे इससे पूर्ण रूप से सन्तुष्ट नहीं हुए। पूरे अर्थ को अभिव्यक्ति करने की दृष्टि से उन्होंने इसमें संशोधन करके इसका नाम सत्याग्रह रखा।
सत्याग्रह से अभिप्राय (Meaning of Satyagraha)
सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ है सत्य के लिए आग्रह करना। इसका आधार है सत्य की अर्थात् सत्य से उत्पन्न होने वाले प्रेम तथा अहिंसा की शक्ति। यह शारीरिक बल अथवा शस्त्रों की भौतिक शक्ति से सर्वथा भिन्न है। यह आत्मा की शक्ति है। सत्याग्रह का संचालन आत्मिक शक्ति के आधार पर किया जाता है। सत्याग्रह के सम्पूर्ण दर्शन का आधारभूत सिद्धान्त यह है कि सत्य की ही जीत होती है।
सत्याग्रह का दार्शनिक आधार (Philosophical basis of Satyagraha)
सत्याग्रह का अर्थ है सत्य के लिए आग्रह करते हुए अत्याचारी का प्रतिरोध करना, उसके सामने सिर को न झुकाना तथा उसकी बात को न मानना। अत्याचारी और अन्यायी को तभी सफलता मिलती है जब लोग भयभीत होकर उसके सामने घुटने टेक दें। किन्तु यदि लोग यह दृढ़ संकल्प कर लें और यह घोषणा कर दें कि तुम चाहे जो करो हम तुम्हारी आज्ञा का पालन नहीं करेंगे, तो अत्याचारी शासक उन्हें मरवा सकता है किन्तु उनसे अपनी आज्ञा का पालन नहीं करा सकता। जब उसे इस बात का निश्चय हो जाता है कि वह अपने प्रजाजनों को मार डालने पर भी अपनी इच्छा उनसे नहीं मनवा सकता तो वह प्रजा का दमन करना निरर्थक समझता है और उसे छोड़ देता है।
इसके अतिरिक्त उसके हृदय पर सत्याग्रहियो द्वारा खेली जाने वाली कठोर यातनाओं और कष्टों का भी प्रभाव पड़ता है। सत्याग्रही द्वारा प्रसन्नतापूर्वक कष्ट झेलने से अत्याचारी में मनुष्यत। की प्रसुप्त भावना की आँखें खुल जाती हैं। उसे अपने किए अत्याचारों पर पश्चाताप होने लगता है। उस समय वह सत्याग्रहियों से समझौता कर लेता है और सत्याग्रही की विजय होती है। यह आत्मबल द्वारा अत्याचारी के हृदय परिवर्तन पर बल देने वाली प्रक्रिया है।
सत्याग्रह के गुण (Merits of Satyagraha)
सत्याग्रह के 11 गुणों का पालन और साधना आवश्यक बताई गई है। ये गुण निम्न हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शरीर श्रम, अस्वाद, निर्भयता, सब धर्मों को समान दृष्टि से देखना, स्वदेशी तथा अस्पृश्यता निवारणता।
सत्याग्रह के साधन (means of satyagraha)
सत्याग्रह के निम्नलिखित साधन हैं
असहयोग किसी देश का शासन उसकी सैनिक शक्ति पर नहीं अपितु जनता के सक्रिय सहयोग पर आधारित होता है। यदि जनता सरकार को यह सहयोग या समर्थन प्रदान न करे तो शासन सर्वथा निराधार होकर शीघ्र समाप्त हो जाएगा। भारत में 1 अगस्त, 1920 को असहयोग आन्दोलन चलाया गया।
सविनय कानून भंग: दूसरा साधन कानून भंग करने का है। गाँधीजी ने 12 मार्च, 1930 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाया था। उसके द्वारा अन्यायपूर्ण कानूनों की अवहेलना की जाती है।
उपवास: तीसरा साधन उपवास है। गाँधीजी इसे सबसे अधिक प्रभावक अस्त्र मानते हैं। उपवास के दो बड़े प्रयोजन आत्मशुद्धि तथा अन्याय व असत्य के विरुद्ध प्रतिकार है। गाँधीजी उपवास को न केवल आत्मशुद्धि के लिए अपितु दूसरों की शुद्धि के लिए और राजनीतिक समस्याओं को हल करने के लिए भी करते रहे हैं। गाँधीजी ने अपने उपवासों से अस्पृश्यता की और हिन्दू-मुस्लिम की समस्याओं का सराहनीय समाधान किया।
हिजरत या देश त्याग: यह बहुत पुराना साधन है। गाँधीजी यह समझते थे कि जब किसी देश में शासक के अत्याचार असहाय हो जाए तो सत्याग्रही को वह स्थान छोड़कर चले जाना चाहिए। 1928 ई. के करबन्दी आन्दोलन में बारदोली के कृषकों पर जब भीषण अत्याचार किए गए तो आन्दोलन में उन्हें हिजरत की सलाह दी गई। इसी प्रकार 1930 ई. में बिलोरी की जनता को भी हिजरत की सलाह दी गई।
धरना: धरना देकर बैठने का अर्थ है-जब तक हमारी बात नहीं मानी जाएगी तब तक हम एक आसन पर स्थित होकर बैठे रहेंगे। वे शान्तिपूर्ण रीति से धरना देने के पक्षपाती थे।
हड़ताल: इसका अभिप्राय किसी अन्याय का प्रतिकार करने के लिए सारे व्यापार और कारोबार को तथा अन्य सभी दुकानों और कार्यालयों को बन्द रखना है।
सामाजिक बहिष्कार: यदि कोई व्यक्ति समाज द्वारा जघन्य या बुरा समझे जाने वाला काम करता है तो उसका जाति या बिरादरी के साथ सभी प्रकार का सामाजिक सम्पर्क बन्द कर दिया जाता है। दूसरे शब्दों में इसे हुक्का पानी बन्द करना कहते हैं।
सत्याग्रह और निष्क्रिय प्रतिरोध में अन्तर
सत्याग्रह और निष्क्रिय प्रतिरोध में निम्नलिखित अन्तर हैं
- सत्याग्रही अहिंसा के सद्धान्त को अपना मौलिक तत्त्व समझता है और वह इसका किसी भी स्थिति में परित्याग नहीं कर सकता है, परन्तु निष्क्रिय प्रतिरोध में कमजोरी के कारण नीति के रूप में अहिंसा का पालन किया जाता है न कि मौलिक सिद्धान्त के रूप में।
- निष्क्रिय प्रतिरोध निर्बलों का हथियार है और सत्याग्रह वीरों का। सत्याग्रह के लिए हिम्मत की जरूरत है, वह तोप तथा बन्दूक का बल रखने वाले के पास भी नहीं होती है।
- निष्क्रिय प्रतिरोध में रचनात्मक प्रवृत्ति का कोई स्थान नहीं होता जबकि सत्याग्रही अपनी सेवा भावना से प्रेरित हो स्वयं को प्रौढ़ शिक्षा, ग्राम सेवा, राष्ट्रभाषा प्रचार, मद्यमान निषेध इत्यादि कार्यों में लगा देता है।
- निष्क्रिय प्रतिरोध द्वेषमूलक है, घृणा और अविश्वास पर दिया होता है। इसके विपरीत सत्याग्रह प्रेममूलक है वह शत्रु के प्रति प्रेम और उदारता का भाव रखता है।
- निष्क्रिय प्रतिरोध में शत्रु को परेशान करने की भावना पर बल दिया जाता है, किन्तु सत्याग्रह में सत्याग्रही स्वयमेव अधिकतम कष्ट झेलता है।
गाँधीजी के आर्थिक विचार (Gandhiji’s economic ideas)
राजनीति के समान ही अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में गाँधी का विचार था कि सच्चा अर्थशास्त्र नैतिकता के महान् नियमों के प्रतिकूल हो सकता है। सच्चा अर्थशास्त्र सामाजिक न्याय चाहता है। वह प्रत्येक व्यक्ति का यहाँ तक कि दुर्बल व्यक्ति का भी सामाजिक हित चाहता है और आर्थिक विचार इस प्रकार हैं
औद्योगीकरण का विरोध (opposition to industrialization)
गाँधीजी के अनुसार बड़े उद्योग, भारतीय अर्थव्यवस्था सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं हैं, बड़े उद्योग बड़े बाजारों की तलाश में उपनिवेशवाद व समाजवाद को बढ़ावा देते हैं, इस प्रकार गाँधीजी बड़े उद्योगों को मानव जीवन के लिए अभिशाप मानते हैं। गाँधीजी के अनुसार, औद्योगीकरण से बेरोजगारी व केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ती है। इससे व्यक्ति की स्वतन्त्रता नष्ट हो जाती है। अन्ततः गाँधीजी बड़े उद्योगों का विरोध कर छोटे उद्योगों का समर्थन करते हैं। गाँधीजी के अनुसार, कुटीर उद्योगों से ही विकेन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था और विकेन्द्रीकृत समाज की रचना सम्भव हो पाएगी।
अपरिग्रह का सिद्धान्त (principle of aparigraha)
गाँधीजी के अनुसार, व्यक्ति को अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह नहीं करना चाहिए। उसे अपरिग्रह के सिद्धान्त को अपनाना चाहिए।
रोटी के लिए श्रम अनिवार्य (labor is necessary for bread)
गाँधीजी के अनुसार, हर व्यक्ति को अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए श्रम करना चाहिए। इस प्रकार गाँधीजी रोटी के लिए श्रम सिद्धान्त का समर्थन करते हैं।
ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त (principle of trusteeship)
गाँधीजी आर्थिक विषमता को मानवजाति के लिए घातक मानते थे। गाँधीजी अपने अहिंसात्मक समाज में आर्थिक समानता के पक्षधर थे। परन्तु गाँधीजी आर्थिक समानता मार्क्स की भाँति हिंसा के माध्यम से नहीं करना चाहते थे। गाँधीजी का विचार था कि हिंसात्मक होने के कारण साम्यवादी पद्धति उपयोगी नहीं हो सकती और पूँजीपति वर्ग को पूर्णतः नष्ट कर देने से समाज उनकी सेवाओं से वंचित रह जाएगा। इस सम्बन्ध में गाँधीजी का विचार था कि यदि सत्य और अहिंसा के आधार पर सार्वजनिक हित के लिए व्यक्तिगत सम्पत्ति ली जा सके तो ऐसा अवश्य ही किया जाना चाहिए। इस समस्या या आर्थिक समानता के लिए गाँधीजी ने ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त प्रस्तुत किया।
गाँधीजी के ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की प्रमुख बातें इस प्रकार हैं
सहयोग पर आधारित: गाँधीजी का ट्रस्टीशिप सिद्धान्त वर्ग संघर्ष पर नहीं बल्कि वर्ग सहयोग पर आधारित है। गाँधीजी के अनुसार, इसमें पूँजीपति अर्थात् धनवान व्यक्ति और गरीब व्यक्ति सहयोग पर आधारित आर्थिक समानता वाले समाज की रचना करेंगे।
सम्पत्ति समाज की धरोहर: गाँधीजी के अनुसार, हर व्यक्ति की सम्पत्ति समाज की सम्पत्ति है अर्थात् धनी व्यक्ति के पास जो सम्पत्ति है वो समाज की देन है। अर्थात् धनी व्यक्ति सम्पत्ति का अपने को स्वामी न समझे अपितु उसे समाज की अमानत या धरोहर मानें। सम्पत्ति का उपयोग अपने लाभ के लिए नहीं बल्कि समाज के कल्याण के लिए करे।
गाँधीजी के सामाजिक विचार (Gandhiji’s social thoughts)
गाँधीजी के सामाजिक विचार इस प्रकार हैं
वर्णव्यवस्था सम्बन्धी विचार
गाँधीजी वर्णव्यवस्था के समर्थक थे अर्थात् वे भारतीय परम्परागत समाज के चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र पर आधारित सामाजिक संगठन का समर्थन करते हैं
इसमें व्यक्ति अपने वंश के अनुभवों का लाभ उठा सकते हैं अर्थात् नाई व कुम्हार का बेटा आसानी से अपने पिता के रोजगार को सीख सकता है। इससे बेरोजगारी की समस्या का समाधान होगा और समाज को कुछ कार्यों में विशेषज्ञ व्यक्ति प्राप्त हो सकेंगे।
वर्णव्यवस्था पर आधारित समाज में प्रतियोगिता भी समाप्त हो जाएगी। गाँधीजी के अनुसार वर्णव्यवस्था सहयोग को बढ़ावा देगी न कि प्रतियोगिता को। गाँधीजी के अनुसार सभी कार्य समान हैं एक नाई का कार्य उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि वकील का। इसलिए सभी कार्यों के लिए समान पारिश्रमिक दिया जाना चाहिए।
अस्पृश्यता का अन्त
गाँधीजी अस्पृश्यता को भारतीय समाज के लिए गम्भीर रोग मानते थे। इसलिए गाँधीजी ने हरिजन उत्थान के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किए। उन्होंने अछूतों में आत्मसम्मान की भावना जागृत की। हरिजन संघ की स्थापना की। उनके रचनात्मक कार्यों का एक प्रमुख आधार अस्पृश्यता का उन्मूलन या अन्त सदैव ही रहा है।
महिलाओं सम्बन्धी विचार
गाँधीजी महिलाओं के उत्थान के समर्थक थे। गाँधीजी ने इसी कारण पर्दा प्रथा, बाल विवाह का विरोध किया। गाँधीजी ने इस बात का प्रतिपादन किया कि स्त्रियों को कानून तथा व्यवहार में पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए। किन्तु गाँधीजी इस बात के पक्ष में नहीं थे कि स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र होने का प्रयत्न करें और घर से बाहर पुरुषों के साथ प्रतियोगिता करें।
शिक्षा पर गाँधीजी के विचार
गाँधीजी भारत में प्रचलित शिक्षा पद्धति से सन्तुष्ट नहीं थे। गाँधीजी का कहना था कि प्रचलित रूढ़िवादिता, धर्म का प्रभाव परम्परा से चली आने वाली शिक्षा न तो व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास करती है और न उसे व्यावहारिक ही बनाती है। अंग्रेजों की चलाई शिक्षा पद्धति केवल उनके हित के दृष्टिकोण से पनपी जिसमें भारतीयकरण का अभाव था। गाँधीजी शिक्षा का उद्देश्य केवल साक्षरता से नहीं लेते थे वरन् गाँधीजी के शब्दों में शिक्षा तो वह है जो व्यक्ति की बुद्धि, आत्मा एवं शरीर का विकास करे। इस दृष्टिकोण को वे शिक्षा जगत में प्रयोग करना चाहते थे। वे शिक्षा के बुनियादी तरीकों में क्रान्ति लाना चाहते थे। उन्होंने किया भी ऐसा। उनके अनुसार शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो बच्चे में ईमानदारी, निडरता और स्वावलम्बन उत्पन्न करे।
शिक्षा का सिद्धान्त
गाँधीजी आदर्श सामाजिक प्रणाली की नींव शिक्षा को मानते थे। गाँधीजी की शिक्षा का आधार आध्यात्मिक है तथा क्षेत्र व्यापक है। सच्ची शिक्षा को अर्थ के रूप में व्यक्ति द्वारा उसके परम तत्त्व की पहचान और इस ज्ञान को आचरण में उतारने की प्रेरणा को स्वीकार करते हैं। इस प्रकार गाँधीजी के मतानुसार शिक्षा व्यक्ति के मानसिक, शारीरिक व आर्थिक विकास को एक साथ सुनिश्चित करती है। गाँधीजी के शब्दों में “जिसने सत्य और अहिंसा को पूर्णतः जान लिया है वे निरक्षर होते हुए भी ज्ञानी ही कहलाएँगे।”
व्यक्ति में आत्मज्ञान की क्षमता उत्पन्न करने वाली शिक्षा ही गाँधीजी के अनुसार सच्ची शिक्षा है। शिक्षा का मर्म अक्षर ज्ञान में नहीं बल्कि यह तो ज्ञान की प्रत्येक शाखा को इस मूलभूत उद्देश्य के प्रति समर्पित होना चाहिए। अक्षर ज्ञान तो शिक्षा की प्राप्ति का एक साधारण सा साधन मात्र है।
शिक्षा की योजना (वर्द्धा योजना)
गाँधीजी ने विद्यार्थियों को आत्मनिर्भरता के प्रति सचेत बनाने वाली और आत्मनिर्भरता के लिए उसमें सामर्थ्य उत्पन्न करने वाली शिक्षा प्रणाली पर बल दिया है। गाँधीजी द्वारा प्रस्तावित शिक्षा योजना को बुनियादी शिक्षा सिद्धान्त 1937 ई. में प्रस्तुत किया गया। वस्तुतः इस शिक्षा समिति के अध्यक्ष डॉ. जाकिर हुसैन थे।
इस योजना को बेसिक शिक्षा तथा उच्च शिक्षा में वर्गीकृत किया जा सकता है
बेसिक शिक्षा योजना
इस योजना को सभा में पारित किया गया था। यद्यपि आचार्य नरेन्द्र देव इस योजना की कई बातों से सहमत नहीं है फिर भी उन्होंने अपनी सहमति दे दी है। इसमें निम्नलिखित बातें कही गई है।
निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा: प्रत्येक सात वर्ष के बालक को मुफ्त पर अनिवार्य रूप से शिक्षा ग्रहण करनी पड़ेगी। शिक्षा के प्रारम्भ में बच्चों को अक्षर ज्ञान कराने की अपेक्षा इतिहास, भूगोल और कताई कला इत्यादि का मौखिक ज्ञान कराया जाना चाहिए। इससे बच्चों की बुद्धि का विकास होगा। प्रारम्भिक चरण छः मास का होना चाहिए।
उद्योग की शिक्षा: प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में विद्यार्थियों को गणित, इतिहास, भूगोल और अन्य ऐसे ही विषयों के साथ-साथ किसी दस्तकारी उद्योग की भी शिक्षा दी जाए जिससे कि विद्यार्थी भविष्य में स्वावलम्बी बन सकें। शिक्षा के साथ-ही-साथ वह उपार्जन भी करेगा जिससे वह अपना खर्च स्वयं अर्जित करने योग्य बने।
पाठ्यक्रम का समय व माध्यम भाषा: प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम कम-से-कम सात वर्ष का होना चाहिए। प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थियों को मैट्रिक तक के निर्धारित पाठ्यक्रम का ज्ञान कराना चाहिए। माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा में अंग्रेजी को अनिवार्य नहीं करना चाहिए। प्राथमिक शिक्षा का माध्यम विद्यार्थियों की मातृभाषा होनी चाहिए।
विषय का विशेष: ज्ञान विषय का विशेष ज्ञान भी कराया जाना चाहिए। जिससे किसी एक विषय में विद्यार्थी पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सके, जैसे-कपड़े बुनने का कार्य, रूई की किस्में, गुण, पैदावार आदि सम्बन्धित ज्ञान हैं।
नैतिक शिक्षा: विद्यालयों में विद्यार्थियों को नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए। उन्हें धार्मिक एवं साम्प्रदायिक शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए। इसमें विद्यार्थियों में सहज मानवीय दृष्टिकोण तथा नैतिक चारित्रिक गुणों का विकास होगा और वे सभी धर्मों को समान आदर देंगे। उनमें मानव मात्र के प्रति प्रेमभावना तथा करुणा का संचार होगा।
शिक्षा में भेद नहीं: शिक्षा में बालक-बालिकाओं के मध्य किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए तथा माध्यमिक स्तर तक की बुनियादी शिक्षा अनिवार्य कर दी जानी चाहिए।
उच्च शिक्षा
उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में गाँधीजी ने स्कूलों, कॉलेजों या विश्वविद्यालयों का विशेष महत्त्व नहीं माना है क्योंकि वे सच्ची शिक्षा को एक जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया मानते हैं। गाँधीजी के अनुसार, सच्ची शिक्षा तो व्यक्ति के उस सकारात्मक दृष्टिकोण में व्यक्त होती है जिसके माध्यम से वह आत्म साक्षात्कार के लिए एक जागृत व्यक्ति के रूप में एक प्रगतिशील और न्यायनिष्ठ समाज की स्थापना का सक्रिय माध्यम बनता है। गाँधीजी की मान्यता है कि इस प्रकार की शिक्षा प्रायः कॉलेजों एवं स्कूलों में नहीं बल्कि जीवन की पाठशाला में प्राप्त की जा सकती है।
यद्यपि गाँधीजी आदर्श के रूप में औपचारिक शिक्षण संस्थाओं को अनावश्यक मानते थे।
गाँधीजी द्वारा उच्च शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
गाँधीजी ने एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिए
- उच्च शिक्षा पर होने वाला व्यय राज्य के द्वारा वहन नहीं किया जाए।
- तकनीकी और इंजीनियरिंग शिक्षा पर जो व्यय भार आता है वह प्रायः औद्योगिक प्रतिष्ठानों द्वारा वहन किया जाना चाहिए। क्योंकि वास्तव में ये कॉलेज इन्हीं प्रतिष्ठानों में कार्य करने के लिए स्नातक तैयार करते हैं।
- गाँधीजी का विचार था कि कृषि महाविद्यालय का संचालन स्वपोषी आधार पर होना चाहिए। इनकी शैक्षणिक गतिविधियाँ भी प्रायः कृषि के व्यावहारिक उत्पादन से जुड़ी होनी चाहिए। ऐसे महाविद्यालयों को अपना खर्च स्वयं की गतिविधियों से ही पूरा करना चाहिए।
- मेडिकल शिक्षा से सम्बन्धित महाविद्यालय चुने हुए अस्पतालों से सम्बद्ध कर दिए जाने चाहिए। इन अस्पतालों में धनाढ्य और सम्पन्न लोग ही अधिक लाभ उठाएँगे।
- गाँधीजी ने कला संकाय के महाविद्यालयों पर राज्य द्वारा व्यय किया जाना ही उचित बताया है क्योंकि इन महाविद्यालयों में किसी भी प्रकार की तकनीकी शिक्षा नहीं दी जाती है।
- उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी नहीं होना चाहिए। गाँधीजी की मान्यता थी कि विदेशी भाषा के माध्यम से उच्च शिक्षा दिए जाने से राष्ट्र की अपूरणीय बौद्धिक और नैतिक हानि हुई है।
स्त्री शिक्षा
गाँधीजी स्त्री शिक्षा के लिए भी खामोश नहीं रहे। उन्होंने कहा कि स्त्रियों में भी शिक्षा का प्रसार होना उतना ही आवश्यक है जितना कि पुरुषों में। चूंकि दोनों के कार्य क्षेत्र में अन्तर है। इसलिए शिक्षा पद्धति में भी अन्तर होना चाहिए। स्त्रियों की शिक्षा गृह प्रबन्ध, बाल विज्ञान तथा संगीत आदि के विषय में होनी चाहिए।
प्रौढ़ शिक्षा
बेसिक शिक्षा द्वारा अगर सम्पूर्ण भारत में बच्चे शिक्षित भी हो जाएँ फिर भी भारत का बहुत बड़ा भाग अज्ञानी रह जाएगा। यह वे व्यक्ति हैं जो विभिन्न प्रकार के कार्यों में लगे हुए हैं। प्रौढ़ व्यक्तियों को ऐसा ज्ञान देना चाहिए कि जो उनके चारों ओर हो उसी से सम्बन्धित अक्षर ज्ञान कराएँ। बात साक्षरता तक ही सीमित नहीं है। बल्कि देश का महत्त्व बताने की भी है। गाँधीजी के शब्दों में यदि प्रौढ़ शिक्षा मुझे सौंप दी जाए तो मैं अनेक प्रौढ़ विद्यार्थियों में सबसे पहले अपने देश की महत्ता और विशाल का भाव जागृत करूंगा। देहातों का हिन्दुस्तान उसके गाँव तक ही सीमित होता है। देहातों में जो ज्ञान फैल रहा है उसका हमें कोई ध्यान नहीं है, मेरे प्रौढ़ शिक्षा का यह अर्थ है कि सबसे पहले प्रौढ़ को मौलिक रूप से सच्ची राजनीतिक शिक्षा दी जाए।
गाँधीजी के अनुसार उद्देश्यों और उपायों की एकता
गाँधीजी का मानना था कि उपायों और माध्यमों के बीच सम्बन्ध सम्पूर्ण और मूलभूत है। जैसा उपाय है, वैसा ही उद्देश्य है। उपायों और उद्देश्यों को पृथक् करने की कोई दीवार नहीं है। यद्यपि अच्छे उद्देश्य की कदर की जाती है, वे हमारे नियन्त्रण में नहीं है। उनका मानना था कि ईश्वर ने हमें उपायों पर नियन्त्रण दिया है, उद्देश्यों पर बिल्कुल नहीं दिया है। लक्ष्य की अनुभूति उपायों की अनुभूति ठीक अनुपात में होती है। समस्या यह है कि जो किसी भी अपवाद को नहीं स्वीकारता इसीलिए उपायों को ध्यान में रखा जाता है। उद्देश्य स्वयं अपना ध्यान रखता है।
उनका केहना था कि यदि कोई कहे कि अच्छे उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये उपायों की नैतिकता को छोड़ा जा सकता है, परन्तु अशुद्ध उपाय का परिणाम ही अशुद्ध उद्देश्य है। कोई असत्य से सत्य की ओर नहीं पहुँच सकता है। सत्य आचरण से ही सत्य तक पहुँचा जा सकता है।
गाँधीवाद और मार्क्सवाद
गाँधीवाद और मार्क्सवाद में अनेक समानताएँ और असमानताएँ हैं। दोनों में समानताएँ है; जैसे-दोनों शोषण व असमानता का अन्त करना चाहते हैं, दोनों राज्यों की सत्ता का विरोध करते हैं और राज्य का अन्त करना चाहते हैं, दोनों पश्चिमी लोकतन्त्र का विरोध करते हैं, दोनों राज्यविहीन वर्गविहीन समाज की स्थापना करना चाहते हैं। इन समानताओं के आधार पर मशरूवाला जैसे विचारक कहते हैं कि गाँधीवाद हिंसा रहित साम्यवाद है। वस्तुतः यह धारणा अत्यन्त भ्रान्तिपूर्ण है क्योकि दोनों में केवल सतही समानता है और आधारभूत अन्तर है। ये अन्तर इस प्रकार हैं
दार्शनिक आधार की दृष्टि से अन्तर: मार्क्सवाद विशुद्ध भौतिकवादी है जबकि गाँधीवाद एक नैतिक सिद्धान्त होने के कारण आध्यात्मिकतावादी है। मार्क्सवाद भोग और प्रचुरता का दर्शन है तो गाँधीवाद संयम और अपरिग्रह का। गाँधी धर्म और ईश्वर में गहरी आस्था रखते हैं जबकि मार्क्स तथा उसके अनुयायी धर्म और ईश्वर के कट्टर विरोधी हैं।
साधन और साध्य का अन्तर: मार्क्सवाद साध्य को महत्त्व देता है। मार्क्सवाद का विचार है कि श्रेष्ठ लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किसी भी प्रकार के साधन अपनाए जा सकते हैं और इस सम्बन्ध में नैतिक मापदण्ड के आधार पर विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है किन्तु गाँधीजी साध्य के साथ साधनों की पवित्रता पर बल देते हैं। वे साध्य और साधन में बीज तथा वृक्ष का सम्बन्ध मानते हैं।
पद्धति में अन्तर: गाँधीवाद और मार्क्सवाद में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अन्तर पद्धति का है। गाँधीवाद अहिंसा और प्रेम पर आधारित है। उसकी पद्धति प्रेम के बल से विरोधियों को परास्त करने की थी। मार्क्सवाद अपने वांछित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हिंसा के प्रयोग को नितान्त आवश्यक मानता है।
ईश्वर और धर्म के सम्बन्ध में भेद: मार्क्सवाद ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता और धर्म को अफीम का नशा कहता है। मार्क्सवाद के नितान्त विपरीत गाँधीवादी विचारधारा मूल रूप से धर्म पर आधारित विचारधारा है।
वर्गों के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में अन्तर: गाँधीवाद और मार्क्सवाद में वर्ग संघर्ष के प्रश्न पर भी तीव्र मतभेद है। मार्क्सवाद के अनुसार, समाज में शोषक और शोषित दो वर्ग होते हैं। जिनके हित परस्पर विरोधी हैं और परस्पर विरोधी हितों के कारण उनका संघर्ष अवश्यम्भावी है, लेकिन गाँधीवादी दर्शन में वर्ग संघर्ष के लिए कोई स्थान नहीं है। यह वग सामंजस्य को प्रधानता देता है और संघर्ष के स्थान पर प्रेम, त्याग और सत्याग्रह आदि साधनों द्वारा समस्याओं को सुलझाना चाहता है।
व्यक्तिगत सम्पत्ति के विषय में भेद: मार्क्सवाद व्यक्तिगत सम्पत्ति को नष्ट करना चाहता है तथा सम्पूर्ण सम्पत्ति का स्वामित्व समाज अथवा राज्य को प्रदान करता है। गाँधीवाद व्यक्तिगत सम्पत्ति को अपने आप में कोई बुराई नहीं समझता और न ही उसे नष्ट करना चाहता है। गाँधीवाद तो भोग विलास की प्रवृत्ति की निन्दा करता है और वह सम्पत्ति के संग्रहकर्ता को स्वामी नहीं बल्कि प्रन्यासी बनाकर रखना चाहता है जिससे सम्पत्ति का प्रयोग सार्वजनिक कल्याण के लिए किया जा सके।
केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण में अन्तर: मार्क्सवाद औद्योगीकरण में विश्वास करता है तथा विशाल उद्योगों की स्थापना के साथ-साथ उत्पादन बढ़ाने के लिए उद्योगों का अधिकाधिक मशीनीकरण करना चाहता है लेकिन गाँधीवाद कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देने के पक्ष में है।
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