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मध्य प्रदेश के प्रमुख लोकनृत्य | Major folk dances of Madhya Pradesh

राई (बुन्देलखण्डी)

बुन्देलखण्ड अंचल की अपनी जातीय परम्परा मूलतः शौर्य और शृंगारपरक है। यह अकारण नहीं है कि बुन्देलखण्ड के प्रख्यात लोकनृत्य राई में एक ओर तीव्र शारीरिक चपलता, वेग, अंग, मुद्राएँ और समूहन के लयात्मक विन्यास हैं, वहीं दूसरी ओर नृत्य के लास्य का समावेश और लोक कविता के रूप में उद्याम श्रृंगार परक अर्थों की नियोजना है। उसमें ऊर्जा, शक्ति और लालित्य एकमेक है।

लोकनृत्यों की समृद्ध शैलियों में ‘राई’ ने उद्दाम आवेग, जीवन्तता, तीव्रगति और लोक संगीत के अद्भुत संयोग के कारण एक ऐसी निजता स्थापित कर ली है कि वीरता और श्रृंगार की अतियों में जीने वाले बुन्देली आदमी के आनन्द की लीला का साक्षात् रूप बन गया है राई राई नृत्य के केन्द्र में है नर्तकी, जिसे बुन्देलखण्ड में ‘बेड़नी‘ कहते हैं

जिसे गति देने का कार्य करता है मृदंग वादक दोनों के बीच नृत्य के दौरान ही ‘स्वांग’ गीत के रूप में एक अद्भुत सवाल-जवाब शैली की लोक कविता तैरती रहती है। मर्यादाओं के वृत्त तोड़ती यह उद्दाम कविता ‘स्वांग‘ कही जाती है। बेजोड़ लोक संगीत, तीव्रगति नृत्य और तात्कालिक कविता के तालमेल ने ‘राई’ नृत्य को एक ऐसी सम्पूर्णता प्रदान कर दी है, जिसका सामान्यतः लोक नृत्यों में भी संयोग दुर्लभ ही है

विशेष उल्लेखनीय तथ्य यह है कि राई के विराम काल में स्वांग का आयोजन होता है। कटु किन्तु मार्मिक सहज किन्तु अर्थपूर्ण ऐसा लगता है कि बुन्देली अंचल के स्वभाव के अनुकूल एक स्वाभाविक, स्वयं स्फूर्त नृत्य की आयोजना ‘राई’ के रूप में की गई हो। इसे बुन्देलखण्ड में मंचीय नृत्य की स्थिति मात्र में सीमित नहीं किया गया है, बल्कि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चे के जन्म के समय और विवाह के अवसर पर ‘राई’ नृत्य का आयोजन प्रतिष्ठा- मूलक माना जाता है. अनेक बार किसी अभीप्सित कार्य की पूर्ति होने या मनौती पूरी होने पर भी राई के आयोजन किए जाते हैं।

राई नृत्य (बघेलखण्डी)

बुन्देलखण्ड की तरह बघेलखण्ड में भी राई नृत्य का प्रचलन है। दोनों की राई में बेहद फर्क है। बुन्देलखण्ड में बेड़नी और मृदंग राई की जान होती है. बघेलखण्ड में राई ढोलक और नगड़ियाँ पर गाई बजाई जाती है. पुरुष ही स्त्री वेश धारण कर नाचते हैं।

राई विशेषकर अहीर नाचते हैं। कहीं-कहीं ब्राह्मण जाति की स्त्रियों में भी प्रचलन है। पुत्र जन्म पर प्रायः वैश्य महाजनों के यहाँ भी यह नृत्य होता है। स्त्रियाँ हाथों, पैरों और कमर की विशेष मुद्राओं में नाचती हैं। राई गीत श्रृंगारपरक होते हैं, परन्तु बुन्देलखण्ड की तरह यौवन और श्रृंगार का उद्दाम आवेग और तीव्रगति यहाँ नहीं होती है।

राई नृत्य में स्त्रियों की वेशभूषा और गहने परम्परागत ही होते हैं. घोती, बाना, साफा और पैरों में घुँघरू पहनते हैं।

मटकी नृत्य

मालवा में मटकी नाच का अपना अलग परम्परागत स्वरूप है। अवसरों पर मालवा के गाँव की महिलाएँ मटकी नाच करती हैं। ढोल या ढोलक को एक खास लय जो मटकी के नाम से जानी जाती है, उसकी थाप पर महिलाएँ नृत्य करती हैं। प्रारम्भ में एक ही महिला नाचती है, इसे झेला कहते हैं। महिलाएँ अपनी परम्परागत मालवी वेषभूषा में चेहरे पर घूँघट डाले नृत्य करती हैं नाचने वाली पहले गीत की कड़ी उठाती है, फिर आसपास की महिलाएँ समूह में इस कड़ी को दोहराती हैं।

नृत्य में हाथ और पैरों का संचालन दर्शनीय होता है. नृत्य के केन्द्र में ढोल होता है। ढोल पर मटकी नृत्य की मुख्य ताल है। ढोल किमची और डण्डे से बजाया जाता है। मटकी नाच को कहीं-कहीं आड़ा-खड़ा और रजवाड़ी नाच भी कहते हैं।

गणगौर

गणगौर निमाड़ी जनजीवन का गीति काव्य है। चैत्र सुदी तृतीया तक पूरे नौ दिनों तक चलने वाले इस गणगौर उत्सव का ऐसा एक भी कार्य नहीं, जो बिना गीत के हो गणगौर के रथ सजाये जाते हैं। रथ दौड़ाये जाते हैं।

इसी अवसर पर गणगौर नृत्य भी किया जाता है झालरियाँ दिये जाते हैं। महिला और पुरुष रनुबाई और धणियेर सूर्यदेव के रथों को सिर पर रखकर नाचते हैं। ढोल और थाली वाद्य गणगौर के केन्द्र होते हैं गणगौर निमाड़ के साथ राजस्थान, गुजरात, मालवा में भी उतना ही लोकप्रिय है

घसिया नृत्य

घसिया नृत्य सरगुजा जिले के ग्रामीण इलाके का अत्यन्त प्रसिद्ध नृत्य है। सरगुजा जिले के सुदूर ग्रामीण अचल में रहने वाले विशेषकर घासी जाति का यह परम्परागत नृत्य एवं जीविका का साधन है। इसमें लोहाटी, शहनाई, टिमकी एवं डफ्ला आदि वाद्य यंत्रों का उपयोग किया जाता है।

ग्रामीण लोग शादी-विवाह एवं तीज त्यौहारों पर इन्हें किराये पर ले जाते हैं। सरगुजा की जनजातियों के लिये इस वाद्य का उतना ही महत्व है, जितना कि शहरों में बैण्ड पार्टी का. इस नृत्य में बड़े वाद्यों के दोनों सिरे पर हिरण या बारह सिंगा के सींग होते हैं, जिस पर स्थानीय लोहारों द्वारा बनाये गये लम्बे, पतले तलवार की तरह के फाल होते हैं।

नृत्य के समय दो वादक या वादकों का दल अपने नृत्य कौशल के साथ ही नृत्य प्रतिस्पर्धा में विपक्षी के वाद्य को फोड़ने की कोशिश में रहता है।

यह नृत्य लास्य और युद्धकला का अद्भुत सम्मिश्रण हे मूलतः यह नृत्य विवाह के अलावा स्थानीय पर्व-त्यौहारों के अवसर पर किया जाता है। घसिया नृत्य में दो या उससे अधिक स्त्री वेष में पुरुष नर्तक होते हैं, जो लोकांचलों में प्रचलित दोहे का गायन करते हैं और गीत के बोल पर नृत्य किया जाता है।

पंथी नृत्य

छत्तीसगढ़ में निवास करने वाली सतनामी जाति का परम्परागत नृत्य पंथी है। माघ महीने की पूर्णिमा को गुरु घासीदास के जन्म दिन पर सतनामी लोग जैतखाम की स्थापना करके उसका पूजन करते हैं। और फिर उसी के चारों तरफ गोल घेरा बनाकर गीत गाते हैं, नाचते हैं।

पंथी नृत्य का प्रारम्भ देवताओं की स्तुति से होता है। उनके गीतों में गुरु घासीदास का चरित्र ही प्रमुख होता है, इसमें मनुष्य के जीवन की गौरव गाथा के साथ उसकी क्षणभंगुरता प्रकट होती है। गहरे आध्यात्मिक रंग में रंगे उनके गीत निर्गुण भक्ति की ऊँचाइयों का स्पर्श करते हैं।

सतनामी लोग गुरु घासीदास के पंथ के हैं इसलिए पंथ नाच नाचते हैं। इस नृत्य के प्रमुख वाद्य मृदंग और झाँझ हैं नृत्य का आरम्भ तो विलम्बित गति से ही होता है पर लय प्रतिपल द्रुत होती है और समापन नृत्य की चरम दुतगति पर ही होता है नर्तकों की ताँबे की रंग की देह से उभरती आँगिक चेष्टाएँ अलौकिक भाव का सृजन करती है।

ऐसे कम ही लोक नृत्य हैं जिनकी मुद्राएँ नृत्य के ही दौरान भरपूर शारीरिक श्रम की माँग करती है और वह भी इन क्षणों में जब जीवन की क्षणभंगुरता का गीत गाया जा रहा हो।

गरबा नृत्य

गरबा नवरात्रि में देवीपूजा नृत्य है। गरबा मूलतः स्त्रीपरक नृत्य है। गरबा नृत्य की सरचनाएँ रास नृत्य से प्रभावित हैं। गोल घेरे में ढोल की थाप पर सजधज कर स्त्रियाँ तालियाँ या डण्डों के माध्यम से गीत गाती हुई उत्फुल्ल नृत्य करती हैं। गरबा नृत्य एक पाली, दो पाली, और तीन पाली तक किया जाता है।

नृत्य की शुरूआत धीमे-धीमे होती है और धीरे-धीरे ढोल की लय बढ़ती है और नृत्य की गति चरम सीमा तक पहुँच जाती है। गरबा गौरी पार्वती के लास्य नृत्य से मिलता-जुलता नृत्य है।

गौर नृत्य

बस्तर में मड़िया जनजाति जात्रा नाम से वार्षिक पर्व मनाती है। जात्रा के दौरान गाँव के युवक-युवतियाँ रातभर नृत्य करते हैं। इस नृत्य के समय मड़िया युवक गौर नामक जंगली पशु का सींग कौड़ियों से सजाकर अपने सिर पर धारण करते हैं, इस कारण इस नृत्य को गौर-नृत्य कहा जाता है।

यह नृत्य वर्षाकाल की अच्छी फसल, सुख और सम्पन्नता को केन्द्र में रखकर किया जाता है। इस नृत्य काल के दौरान पूरा गाँव आमोद-प्रमोद में निमग्न रहता है। युवक वर्ग विशेष रूप से इस नृत्य में हिस्सा लेता है। यह अत्यन्त आकर्षक तथा कलात्मक आदिवासी नृत्य है।

आदिवासी जीवन और संस्कृति के प्रख्यात अध्येता श्री बेरियर एल्विन ने एक स्थान पर लिखा है कि मड़ियाओं का गौर नृत्य अपनी संरचना, कोमलता और कलात्मक सौष्ठव में सम्भवतः हमारे देश के सभी आदिवासी नृत्यों में सर्वश्रेष्ठ है।

भड़म नृत्य

भरियाओं के परम्परागत नृत्यों में भड़म, सैला और अहिराई प्रमुख है। भड़म नृत्य के कई नाम प्रचलित हैं, इसे गुन्नू साही, भड़नी, भड़नई, भरनोट या भंगम नृत्य भी कहते हैं। विवाह के अवसर पर किया जाने वाला यह नृत्य भरियाओं का सर्वाधिक लोकप्रिय नृत्य है। भड़म समूह नृत्य है।

सैरा नृत्य

बुन्देलखण्ड के ग्रामवासी सावन माह में मेघों से सिंचित हरी-भरी धरती के आँगन में सामूहिक रूप से सेहरा नृत्य करते हैं। घुटनों तक धोती, कमीज पहिने, हाथों में लाल रंग की तौलिया लिये कमर के फेरे में डेढ़-डेढ़ फुट के दो-दो डण्डे लिए वृत्ताकार झूमते हुए नाचते और कजरी गीत गाते हैं।

विशेषतः यह सेहरा नृत्य कजली तीज को उत्सव के रूप में नाचा जाता है जिसमें हाथों द्वारा तौलियों की झूम आपस में डण्डों के टकराने की मोहक तालबद्ध ध्वनि देखने और सुनने वालों को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। ढोलक की थाप, मंजीरों की सुरमयी झंकार, नृत्य की लोच-लचक, गीतों की लय मनोहरी होती है।

कजली तीज के दिन माहुल या पलाश के दोनों में हरियाते अंकुराते गेहूँ के दाने, प्रत्येक के हरे-भरे जीवन की कामनाओं के प्रतीक खुशहाली स्वरूप होते हैं। यह गेहूँ के अंकुराये हरे दाने कजलियों के रूप में स्नेह मिलन की भावना लेकर मुसकराते हैं और एक-दूसरे को बन्धुत्व की भावना से गले मिलाते हैं।

सैला नृत्य

सैला सरगुजा जिले का सुप्रसिद्ध नृत्य है। सैला नृत्य शरद् की चाँदनी रातों में किया जाता है। हाथों में लगभग सवा हाथ के डण्डे के कारण इसका नाम सैला पड़ा। आदिदेव को प्रसन्न करने के लिए सैला नृत्य का प्रचलन है। कहते हैं कि सरगुजा की रानी से अप्रसन्न होकर आदिदेव बधेसुर अमरकंटक चले गये थे, वहाँ के बाँसों को काटकर इस नृत्य का चलन हुआ।

करमा सैला गोंड जनजाति का लोकप्रिय नृत्य है। इसमें सिर्फ पुरुष नर्तक भाग लेते हैं। सरगुजा के पण्डों, रजवार, कँवर और गोंड जनजातियों का यह प्रमुख नृत्य है। नृत्य के समय पुरुषों द्वारा पगड़ी के ऊपर मोर के पंख बाँधे जाते हैं और उनके हाथ में लकड़ी के छोटे-छोटे डण्डे होते हैं। मांदर, बाँसुरी और झाल के सम्मिलित ताल पर डण्डे के आपस में टकराते हुए लगभग चक्राकार नृत्य गति होती है।

पहले सैला नर्तक अपने गाँव से पन्द्रह बीस दिनों के लिए निकल जाते थे और प्रत्येक गाँव में अपना प्रदर्शन करते थे। आज के समय में दूसरे गाँव में सैला नर्तकों के जाने की परम्परा लगभग समाप्त हो गई है, बावजूद इसके सैला नृत्य की गरिमा और उसकी परम्परा यथावत् है।

बायर नृत्य

बायर नृत्य सरगुजा जिले में निवास करने वाली कँवर और गोंड जनजाति के अलावा रजवार और अन्य जातियों द्वारा भी किया जाता है। मूलतः यह आदिवासी नृत्य है जिसे सरगुजा जिले के अन्य लोगों ने भी अपना लिया है। बायर नृत्य अन्न के उत्पादन और उसके उत्सव से सम्बन्धित है, पुरुष और महिलाएँ हिस्सा लेती हैं। बायर नृत्य अत्यन्त तीव्र गति कलात्मक नृत्य है।

करमा नृत्य

करमा नृत्य कर्म का प्रतीक है। यह विजयदशमी से लगाकर वर्षा के प्रारम्भ तक चलता है, इसलिये ऋतु के साथ इसका सम्बन्ध है, किन्तु खेतीहर संस्कृति और कर्म की महिमा का गान होने के कारण इसे जीवन चक्र के अन्तर्गत ही मानना चाहिए। आदिवासी जगत् में कर्म की अभिव्यक्ति उनकी वाचिक और कला परम्परा में कई आयामों में देखी जाती है।

नृत्य और गीत कर्म की महत्ता की अभिव्यक्ति के प्रमुख पारम्परिक समर्थ साधन हैं। आदिवासी संसार और लोक में श्रम और कर्म के प्रति एकाग्र निष्ठा का संचार सर्वकालिक मिलता है। करमा, करम राजा और करम रानी को प्रसन्न करने के लिये किया जाता है। इसमें प्रायः आठ पुरुष और आठ स्त्रियाँ नृत्य करती हैं. युवक-युवतियाँ गोलार्द्ध बनाकर आमने- सामने खड़े हो जाते हैं। एक दल गीत उठाता है, दूसरा दल दुहराता है।

मांदर बजता है नृत्य में गोंड युवक-युवती आगे पीछे चलने में एक-दूसरे के अंगूठे को छूने की कोशिश करते हैं। देश के लगभग सभी आदिवासी समुदायों में करमा नृत्य किया जाता है।

आदिवासी और लोक जीवन में जीवन की कर्ममूलक गतिविधि और सौन्दर्य बोध इतने परस्पर और घुले मिले हैं – कि कई बार जीवन की गतिविधि और कला के बीच पार्थक्य की रेखाएं लुप्त-सी होने लगती हैं। आदिवासी लोगों के कठोर वन्य जीवन और ग्राम्यान्चलों की कृषि संस्कृति श्रम पर आधारित है। इसमें ‘कर्म’ की प्रधानता है, वह – जीवन की धुरी है।

करमा नृत्य गीत ‘कर्म देवता’ को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है। ‘करमा’ नृत्य गीत का क्षेत्र बहुत – विस्तृत है। सुदूर छत्तीसगढ़ के लोक जीवन के साथ ही यह – मण्डला के आसपास के क्षेत्र के गोण्ड और बेगा आदिवासियों का प्रमुख नृत्य है। गीत, लय, ताल, पद संचालन आदि में थोड़ा-थोड़ा अन्तर है, किन्तु कर्म की प्रधानता का जीवन में स्वीकार, यही इस नृत्य के पीछे का सबसे महत्वपूर्ण विचार है।

यह नृत्य जीवन की व्यापक गतिविधि के बीच विकसित होता है, शायद यही कारण है कि करमा गीतों में बहुत विविधता है, वे किसी एक भाव या स्थिति के गीत नहीं है। उनमें दैनिक जीवन की गतिविधि और स्थितियों के वर्णन के साथ प्रेम का गहरा और सूक्ष्म भाव भी परिपक्व हो सकता है।

करमा वास्तव में ऐसा नृत्य- गीत प्रकार है जो जीवन चक्र की ही कलात्मक अभिव्यक्ति है। इसमें पुरुष और स्त्रियाँ दोनों भाग लेते हैं। बेगा आदिवासियों के करमा को ‘बेगानी करमा’ कहा जाता है। ताल और लय के अन्तर से यह चार प्रकार का है।

दशहरा और ददरिया

बैगा आदिवासियों में यद्यपि दशहरे का त्यौहार नहीं मनाते, किन्तु विजयादशमी के दिन से प्रारम्भ होने के कारण नृत्य का नाम दशहरा नृत्य पड़ा। इस नृत्य को बैगा आदिवासियों का आदि नृत्य कह सकते हैं, दशहरा नृत्य अन्य नृत्यों का द्वार है। दशहरा नृत्य जैसे बैगा आदिवासियों में सामाजिक व्यवहार की कलात्मक सम्पूर्ति है वहीं ददरिया नृत्य गीत प्रेम की अभिव्यक्ति है।

आदिवासी और लोक जीवन में प्रेम की अभिव्यक्ति, चेष्टा और भाव के साथ अनेक कला रूप और परम्पराएं परस्पर सम्बन्धित हैं। ददरिया गीत की स्वीकृति छत्तीसगढी लोक जीवन और साहित्य में ‘प्रेम कविता’ के रूप में हुई है इसमें युवक-युवतियों के परस्पर आकर्षण, प्रेम और सौदर्य का अत्यन्त कोमल भाव संसार अभिव्यक्त होता है।

बैगा आदिवासियों में इसके साथ नृत्य की योजना भी विद्यमान है। दशहरे के अवसर पर एक गाँव के युवक नर्तक दूसरे गाँव जाते हैं, जहाँ युवतियाँ दल का स्वागत ददरिया नृत्य और गीत से करती हैं, यह एक ऐसा अवसर होता है जब बैगा युवतियाँ अपनी पसन्द के युवक का चुनाव कर सकती हैं।

परिचय, घनिष्ठता और प्रेम की अभिव्यक्ति के अवसर की एक सुन्दर और अकृत्रिम योजना ही इस नृत्य- गीत के पीछे सक्रिय मालूम पड़ती है। इसमें सामाजिक परम्परा के निर्वाह और प्रेम की अभिव्यक्ति का असाधारण मेल है। यह दशहरे के अवसर पर बैगाओं में शुरू होता है। इसलिये ऋतु चक्र के साथ सम्बन्ध तो है ही किन्तु प्रेम की अभिव्यक्ति और जीवन साथी के चुनाव का अवसर प्रस्तुत करने की सहज सामाजिक परम्परा के निर्वाह के कारण इसे जीवन चक्र के अन्तर्गत मानना उचित होगा।

उल्लेखनीय तथ्य यह है कि बैगा लोगों में सामाजिक व्यवहार और सामाजिक व्यवहार की परम्परा के साथ नृत्य- गीत जुड़ा है जैसे नृत्य-गीत में ही उसकी अभिव्यक्ति होती है. कला और अविछिन्नता का यह अद्भुत उदाहरण है।

बधाई नृत्य

बुन्देलखण्ड अंचल में जन्म, विवाह और तीज-त्यौहारों पर बधाई नाची जाती है मनौती पूरी हो जाने पर देवी- देवताओं के द्वार पर भी बधाई नाच होता है इस नाच में स्त्रियाँ और पुरुष दोनों ही उमंग से भरकर नाचते हैं। बूढी स्त्रियाँ कुटुम्ब में नाती-पोतों के जन्म पर अपने वंश की वृद्धि के हर्ष से भरकर घर के आँगन में बधाई नाचने लगती है नेग-न्यौछावर बाँटती हैं।

मंच पर जब बधाई नृत्य समूह के रूप में प्रस्तुत होता है तो इसमें गीत भी गाये जाते हैं बधाई के नर्तक चेहरे के उल्लास, पद संचालन, देह की लचक और रंगारंग वेशभूषा से दर्शकों का मनमोह लेते हैं इस नृत्य में ढपला, टिमकी, रमतूला और बाँसुरी आदि वाद्य प्रयुक्त होते हैं।

दुल-दुल घोड़ी

दुल-दुल घोड़ी राजस्थान का मूल नृत्य है। वहीं इसे कच्छी घोड़ी नृत्य कहते हैं राजस्थान में कच्छी घोड़ी नाचने वाली कई जातियों का पैतृक धन्धा आज भी है। पर्व त्यौहार, विवाह आदि खुशी के अवसरों पर घोड़ी का स्वांग लेकर घर-घर नाचने का कार्य करते हैं मध्य प्रदेश में दुल- दुल घोड़ी का स्वांग राजस्थान से आया है।

इस नृत्य में बाँस, लकड़ी, रंगबिरंगे कागज, पन्नी कपड़े से एक घोड़ी तैयार की जाती है। इसे नाचने वाले व्यक्ति का श्रृंगार दूल्हे जैसा होता है जो इसके बीच की खाली जगह में खड़े होकर तथा लगाम पकड़कर घोड़ी को नचाता है।

घोडी के साथ स्त्री के वेश में एक नर्तक विदूषक होता है जो मुख्यतः लंगुरिया तथा अन्य गीत – गाकर नाचते हैं और हंसाते हैं। दुल-दुल घोड़ी नृत्य के साथ प्रमुख रूप से ढोल, नगड़िया, झींका तथा मसक वाद्य होते हैं।

भीली नृत्य

झाबुआ और धार की सर्वाधिक रंगप्रिय जनजाति – ‘भील’ का भगोरिया जातिगत नृत्य है। फागुन के मदमस्त – मौसम में होली से पूर्व भगौरिया हाटों का आयोजन होता है भगौरिया हाट केवल हाट न होकर युवक-युवतियों के – मिलन-मेले हैं। यहीं से युवक-युवती एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं, आकर्षित होते हैं और जीवन सूत्र में बँधने के लिए भाग जाते हैं। इसलिये इन हाटों का नाम भगौरिया पड़ा।

मांदल की थाप पर युवक-युवतियाँ ताड़ी के सुरुर में आदिम किलकारियों के मध्य मस्ती से नाचते हैं, गाते हैं। भीली नृत्य में विविध पदचाप समूहन, पाली, चक्री पाली तथा पिरामिड नृत्य संचालन आकर्षण का केन्द्र होते हैं. रंग-बिरंगी वेशभूषा में सजी-धजी युवतियों का श्रृंगार और युवकों का हाथ में तीर-कमान लिए नाचना ठेठ पारम्परिक व अलौकिक संरचनाएं हैं।

परधौनी

आदिवासियों के कुछ नृत्य इस प्रकार के हैं जो एक विशेष अवसर और अनुष्ठान से निबद्ध हैं। उस अवसर विशेष के अलावा वह नृत्य प्रायः नहीं किया जाता है जैसे बैगा आदिवासियों में ‘परधौनी नृत्य’ विवाह के अवसर पर बारात की अगवानी के समय किया जाता है।

इसी अवसर पर लड़के वालों की ओर से आँगन में हाथी बनाकर नचाया जाता है इसमें एक अवसर विशेष को समारोहित करने की चेष्टा है जिसमें आनन्द और उल्लास की अभिव्यक्ति मुख्य हैं, लालित्य की चेष्टा गौण, महत्वपूर्ण बात कलात्मक परिष्कार नहीं केवल उल्लास की अभिव्यक्ति है किन्तु इससे यह समझना भ्रम होगा कि इसमें कला होती ही नहीं हाथी बनाकर आँगन में नचाने का अनुष्ठान भी यह संकेत करता है कि इसमें प्रसन्नता की अभिव्यक्ति ही मुख्य ध्येय हैं। अवसर और अनुष्ठान निबद्ध होने के उपरान्त भी इसे जीवन चक्र के एक अटूट हिस्से के रूप में ही लेना चाहिए।

गेंडी नृत्य

बस्तर में निवास करने वाली मुरिया आदिवासी जाति में ‘घोटुल’ की प्रथा हैं घोटुल मुरिया आदिवासियों के सामाजिक संगठन का नाम है। इसमें युवाओं के लिए सामाजिक व्यवहार, परम्परा और कला में प्रशिक्षण के साथ ही प्रेम की अभिव्यक्ति के अकृत्रिम खुले अवसर प्राप्त हैं।

घोटुल के सदस्य घोटुल में और घोटुल के बाहर नृत्य करने जाते हैं। मुरिया युवक लकड़ी की गेंडी पर अत्यन्त तीव्र गति का नृत्य करते हैं जिसे ‘डिटोंग’ कहा जाता है। इस नृत्य के साथ गीत नहीं गाया जाता, केवल नृत्य किया जाता है। इस नृत्य में स्त्रियाँ हिस्सा नहीं लेतीं, केवल पुरुष सदस्य शामिल होते हैं।

इस नृत्य में अत्यन्त कुशलता के साथ गेंडी पर अपने शारीरिक सन्तुलन को बरकरार रखते हुए नृत्य की योजना करना पड़ती है। मुरिया आदिवासी इसमें अत्यन्त दक्ष हैं। इस नृत्य में शारीरिक कौशल और दर्शनीय सन्तुलन का प्रदर्शन ही विशेष बात है। इसे जीवन चक्र के अन्तर्गत ही मानना चाहिए।

सरहुल नृत्य

उराँव जनजाति रायगढ़ जिले के जशपुर तहसील तथा सरगुजा में निवास करती हैं उराँव जनजाति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और पारम्परिक नृत्य है ‘सरहुल’ यह जनजाति साल (सरई) वृक्ष में अपने ग्राम देवता का निवास मानती है, इसलिये वर्ष में एक बार चैत्र मास में पूर्णिमा को साल वृक्ष की पूजा करते हैं और साल वृक्ष के आसपास नृत्य करते हैं।

केहरा नृत्य

केहरा, स्त्री और पुरुष दोनो अलग-अलग शैली में नाचते हैं। इसकी मुख्य ताल केहरवा ताल है और इसके साथ बाँसुरी की जब मधुर धुन छिड़ जाती है तब पुरुष नर्तकों के हाथ और पैरों की नृत्य गति असाधारण हो उठती है महिलाओं के हाथों और पैरों की मुद्राओं का संचालन और गतिमय हो जाता है।

नृत्य के पहले पुरुष केहरा गाते हैं। नृत्य के सम पर पहुँचने पर मुख्य नृतक कोई दोहा कहता है और दोहे की अन्तिम कड़ी के साथ हाथों के झटकों के साथ पूरी गति से नृत्य प्रारम्भ होता है। नृत्य और संगीत का सामंजस्य लोगों में इतना जोश भर देता है कि कितने ही लोग बरबस नाचने लगते हैं।

नाचने के पहले स्त्रियाँ भी केहरा गाती है। स्त्रियाँ नाचते-नाचते फुरहरी लेती हैं। फुरहरी केहरा की एक खास मुद्रा है। फुरहरी में स्त्रियाँ हाथों में हाथ देकर चकरी लेती हैं। केहरा नाच की एक खास मुद्रा है फुरहरी जो हर जाति में है. बारी जाति का केहरा नाच विशेष लोकप्रिय है।

दादर नृत्य

दादर बघेलखण्ड का प्रसिद्ध नृत्य है। दादर गीत अधिकांशतः पुरुषों के द्वारा खुशी के अवसर पर गाये जाते हैं और कहीं-कहीं पुरुष नारी वेश में नाचते हैं, दादर के लिए कोल, कोटवार, कहार, विशेष रूप से प्रसिद्ध है।

ये जातियाँ दादर लेकर निकलती हैं। दादर के मुख्य वाद्य नगड़िया ढोल, ढोलक, ढप और शहनाई हैं। कभी-कभी महिलाएँ नाचती हैं और पुरुष वाद्य बजाते हुए गाते हैं। महिलाएँ घूँघट में नाचती हैं। पैरों में घुँघरू बाँधती हैं। हाथ पैरों और कमर की मुद्राओं से दादर नृत्य परम्परा का निर्वाह करती हैं।

जातीय गीतों के साथ दादर नृत्य में अपनी निजी विशेषताएँ होती हैं, इन जातीय विशेषताओं के कारण कीह कालहाई दादर, बरिहाई दादर आदि नाम से दादर की प्रतिष्ठा पूरे बघेलखण्ड में है। दादर नृत्य में बजने वाले बाजों की लय, ताल और घुँघरुओं की घनघनाहट दूर-दूर बसे लोगों को नृत्य तक खींच लाती है। विवाह में घराती और बराती दोनों की ओर से गाजे बाजे के साथ दादर नृत्य किया जाता है।

कलसा नृत्य

बारात की अगवानी में सिर पर कलश रखकर नाचने की परम्परा अहीरों, गुड़ता गड़रियों में समान रूप से प्रचलित है। द्वार पर स्वागत की रस्म होने के पश्चात् नृत्य शुरू होता है। नगड़िया, ढोल, शहनाई की समवेत लोक धुन पर कलसा नृत्य चलता है। नर्तक का कोई खास वैश नहीं होता, बल्कि परम्परागत धोती, बंडी, साफा पहनकर यह नृत्य किया जाता है।

नर्तक पैरों में घुँघरू बाँधता है गुजरात के भवाई नृत्य की तरह कलसा नृत्य में सिर पर सात घड़े रखकर नाचने की परम्परा प्राचीन है। सिर पर सात घड़ों के साथ शरीर का संतुलन नृत्य को बड़ी सहजता से लय ताल के संतुलन के साथ साधता चलता है। पुरुष नर्तक के साथ कभी-कभी महिला भी नाचती हैं।

केमाली नृत्य

केमाली नृत्य को साजन-सजनई नृत्य भी कहते हैं, केमाली में स्त्री-पुरुष दोनों हिस्सा लेते हैं। केमाली विवाह के अवसर पर किया जाता है। केमाली के गीत जवाब की शैली में होते हैं। साजन-सजनई गीत बड़े कर्णप्रिय और भावप्रवण होते हैं। साजन-सजनई लम्बे गीत होते हैं।

गीत में वाद्यों की ताल दोहरी, तिहरी होती जाती है। इस गीत के गायन के उतार-चढ़ाव में असाधारण तेजी और आकर्षण बढ़ जाता है। केमाली गीत और नृत्य रात-रात भर चलते हैं।

फेफारिया नृत्य

फेफारिया पारम्परिक समूह नाच है। स्त्री और पुरुष जोड़ी बनाकर गोल घेरे में नाचते हैं। फेफारिया वाद्य के कारण इस नाच का नाम फेफारिया नाच पड़ा। फेफारिया एक प्रकार की फुगी है जिसकी आवाज शहनाई से मिलती- जुलती है।

फेफारिया की स्वर लहरी के साथ ढाँक और थाल की अनुगँज पर स्त्री और पुरुष नर्तक हाथ-पैरों और कमर की विभिन्न मुद्राओं के साथ नृत्य को क्रमशः गति देते चलते हैं। नृत्य चरम पर पहुँचकर थम जाता है. फेफारिया नाच विवाह के अवसर पर किया जाता है।

मांडल्या नृत्य

मांडल्या नाच ढोल पर किया जाता है मांडल्या एक पारम्परिक समूह नृत्य है पुरुष ढोल बजाता है काँसे की थाली का तीव्र स्वर नृत्य को अधिक उत्तेजक बनाता है माडल्या नाच केवल महिलापरक है।

महिलाएँ ढोल की थाप पर गति बदलती हैं, हाथ और पैरों की विभिन्न मुद्राओं को प्रदर्शित करती हैं। ज्यों-ज्यों ढोल की गति बढ़ती जाती है। नृत्य चलता है। विवाह या पर्व त्यौहार पर मांडल्या नाच खुले आँगन में किया जाता है।

आड़ा-खड़ा नृत्य

निमाड़ में जन्म, मुंडन संस्कार और विवाह के अवसर पर कई नृत्य किए जाते हैं. इन नृत्यों को आड़ा या खडा कहा जाता है। महिलाएं घूँघट डाले झुककर हाथ और घुटनों को नृत्य गतियों के अनुरूप लय के साथ कमर पर ले जाती हैं।

ढोल और थाली इस नृत्य के मुख्य वाद्य है खड़ा नाच में गीत भी गाये जाते हैं, जो सवाल-जवाब के रूप में होते हैं। इस नृत्य में दो या चार महिलाएँ हिस्सा लेती हैं।

डंडा नृत्य

चैत्र-वैशाख की रातों में विशेषकर गणगौर पर्व पर निमाड़ के किसान डंडा नाच करते हैं इसमें 20 से 25 तक पुरुष नर्तक होते हैं नर्तकों के दोनों हाथों में एक डंडा होता है जो लगभग एक या सवा मीटर का होता है।

डडा लेकर नाचने के कारण इसका नाम डंडा नाच पड़ा। डंडा नाच के प्रमुख वाद्य ढोल और थाली है। नाच मंदगति से शुरू होकर तीव्रतम गति पर जाकर समाप्त होता है, नर्तक ढोल की लय के साथ एकान्तर स्थिति पलटकर हाथ के डंडे को लड़ाते हैं।

ढोल की तीव्रता के साथ नृत्य की गति बढ़ती है। नर्तक गोल घेरे में घूमते जाते हैं। गति के साथ कभी बैठकर, कभी लेटकर डंडे लड़ाये जाते हैं। बीच-बीच में छल्ला या दोहे गाने का भी रिवाज है।

आड़ा-खड़ा रजवाड़ी नृत्य

आड़ा-खड़ा रजवाड़ी नृत्य की परम्परा किसी भी अवसर विशेष पर समूचे मालवा में देखी जा सकती है, परन्तु विवाह में तो मण्डप के नीचे आड़ा-खड़ा और रजवाड़ी नृत्य अवश्य किया जाता है। ढोल की पारम्परिक कहेरवा-दादरा आदि चालों पर आड़ा-खड़ा रजवाड़ी नाच किया जाता है।

ढोल डंडे और कीमड़ी से बजाया जाता है। आड़ा-खड़ा रजवाड़ी महिला परक नृत्य है। आड़ा झुककर केहरवा ताल पर किया जाता है। खड़ा खड़े-खड़े किया जाता है और रजवाड़ी साड़ी के पल्लू को पकड़कर किया जाता है।

ढिमरयाई नृत्य

ढिमरयाई लोक नृत्य बुन्देलखण्ड के ग्रामीण अंचल में अधिक प्रचलित है. ढीमर जाति के लोग इस नृत्य को करते हैं। इसलिए इसे ढिमरयाई नृत्य कहते हैं। शादी ब्याह एवं नवदुर्गा आदि अवसरों पर यह नृत्य किया जाता है।

नृत्य करते समय प्रमुख नर्तक श्रृंगार और भक्ति के गीत गाता है। मुख्य नर्तक ‘कत्थक’ की तरह पदचालन करते हुए गीतों को हावभाव द्वारा समझाने की चेष्टा करता है. इस नृत्य की विशेषता पदचालन की है।

दौड़ना, पंजों के बल चलना, मृदंग की थाप पर कलात्मक ढंग से ठुमकना, पदाघात करना आदि समय पर द्रुतगति से घूमते हुए सात-आठ चक्कर लगाना, इसके प्रमुख भाव हैं। इस नृत्य में केंकड़िया मृदंग, ढोलक, टिमकी आदि वाद्य बजाये जाते हैं।

कानड़ा नृत्य

बुन्देलखण्ड में कानड़ा या कनड़याई नृत्य मूल रूप से धोबी समाज के लोग ही करते हैं। यह पारिवारिक नृत्य है। इसमें पहले सरस्वती और गजानन भगवान की कथा गाई जाती है, साथ ही गायन से पूर्व गुरु वन्दना भी की जाती है।

मुख्यतः यह नृत्य शुभ अवसरों पर जन्म, विवाह आदि पर किया जाता है। कुछ समय पूर्व तक इस नृत्य के बिना धोबी समाज में कोई भी विवाह नहीं हो पाते थे, यह नृत्य विवाह में अनिवार्य था, विवाह के अवसर पर ये नर्तक विवाह घर से निकट के तालाब या कुआँ के घाट में पानी लेने जाते थे उस समय यह नृत्य पूरे समय चलता रहता था।

इसे कानडा नृत्य कहते हैं नृत्य में जो गीत गाये जाते हैं वे मुख्यतः भक्ति के गीत होते हैं जिसमें राम, कृष्ण तथा शिव की लीलाओं के वर्णन होते हैं।

इस नृत्य में मुख्य वाद्य सारंगी, लोटा, ढोलक और तारें होती हैं कभी-कभी ढोलक की जगह मृदंग का भी प्रयोग होता है साथ ही सारंगी तथा ढपली और तारें बजाने वाले कलाकारों के नृत्य में पद संचालन विशेष रूप से प्रभावित करता है।

बरेदी नृत्य

बुन्देलखण्ड के बरेदी लोक नृत्य का सम्बन्ध हमारे देश की कृषक चरवाहा संस्कृति के साथ है। प्राचीन वाङमय के अध्येताओं ने यह सिद्ध किया कि बहुत पहले इस देश में ‘आभीर’ नामक एक अत्यन्त शक्तिशाली जाति का प्रवेश हुआ था जो अपने साथ पुराने अपभ्रंश का रूप और आख्यानपरक विशद् लोक कथाएं लेकर आए थे।

कालान्तर में जातियों और संस्कृतियों के आपसी सम्बन्ध के कारण वह पृथक् पहचान समाप्त हो गई, किन्तु आभीरों की भाषा और संस्कृति का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा इन्होंने अपने स्वभाव, वैशिष्ट्य और रुचि के अनुकूल भारत के महानायक श्री कृष्ण के जीवन और लीला चरित से स्वयं को जोड़ लिया।

आज भी उत्तर भारत के अनेक अंचलों में दीपावली के समय यादव लोग नृत्य करते हैं साथ ही गोपाल कृष्ण की लीलाओं विशेषकर किशोर लीलाओं के गीत गाते हैं। बुन्देलखण्ड में बरेदी नृत्य गीत दीपावली से पन्द्रह दिन यानी पूर्णिमा तक चलते हैं. विशेष किन्तु अत्यन्त आकर्षक नृत्य पोषाक के साथ आठ-दस युवक और किशोर नर्तक अत्यन्त तीव्रगति के साथ नृत्य करते हैं।

एक व्यक्ति नृत्य के पहले गीत गाता है। प्रायः दो पंक्तियों की लोक कविता जिसे बुन्देली में ‘दिवारी’ कहा जाता है. यह श्रृंगारिक, नीतिपरक, विशेष रूप से धार्मिक हो सकती है। दीपावली के अवसर पर की जाने वाली गोवर्धन पूजा से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है।

हुलकी नृत्य

हुलकी पाटा, घोटुल का सामूहिक मनोरंजक गीत है. इसे अन्य सभी अवसरों पर भी किया जाता है. इसके गीत नृत्य के मुख्य आकर्षण होते हैं: हुलकी पाटा में लड़कियाँ और लड़के दोनों भाग लेते हैं हुलकी पाटा के गीत मुरिया संसार के सभी कोणों का स्पर्श थोड़ा-बहुत अवश्य करते हैं हुलकी पाटा मुरिया कल्पनाओं का व्यावहारिक गीत है।

इसमें यह गाया जाता है कि राजा-रानी कैसे रहते हैं? ये रानी लोग कैसे जुआ खेलती थीं? राजाओं के बीच लड़ाइयाँ किन बातों पर और किस तरह से हुआ करती थीं? रानियों को छुपने पर उन्हें कैसे ढूँढ़ा जाता था? ढूँढ़ने के लिए कौन-कौन लोग निकलते थे? अन्य गीतों को गाये जाते समय लड़के-लड़कियों की शारीरिक संरचना को मापदण्ड बनाकर गाया जाता है कि छोटी लड़की किस काम के लिए उपयुक्त है? एक भांटा तोड़ने के लिए छोटी लड़की ठीक है।

ऊँचा लड़का किस काम के लिए ठीक है? सेमी तोड़ने के लिए ठीक है। सेमर फूल जैसी लड़की किसके घर में जन्म ली है? राजा के घर में जन्म ली है इस तरह से हुलकी पाटा कई विभिन्न धरातलों का स्पर्श करते हुए यथासम्भव तर्कसंगत उत्तर देता है। इसे जब भी इच्छा होती है-नाचा गाया जा सकता है। मांदरी नृत्य मांदरी नृत्य में मांदरी करताल पर नृत्य किया जाता है।

इसमें गीत नहीं गाया जाता है. पुरुष नर्तक इसमें हिस्सा न लेते है। दूसरे प्रकार की मांदरी नृत्य में चिटकुल के साथ युवतियाँ भी हिस्सा लेती हैं। यह घोटुल का नियमित नृत्य होता है। इसमें कोई एक व्यक्ति पूरे नृत्य का नेतृत्व करता है, जो नृत्य में शामिल होता है।

यह व्यक्ति मांदरी की अलग-अलग थापों का संयोजन करता है, जिसमें कम-से- कम एक चक्कर मांदरी नृत्य अवश्य किया जाता है. मांदरी नृत्य में शामिल प्रत्येक व्यक्ति कम-से-कम एक थाप के संयोजन को प्रस्तुत करता है जिस पर पूरा समूह नृत्य करता है। थापों के संयोजन पर ही चिटकुल बजाई जाती है।

इसी संयोजन पर पदताल भी शामिल रहते हैं। एक कदम आगे एक कदम पीछे दो कदम आगे दो कदम पीछे बाएं-दाएं पूरा समूह एक घेरे में नृत्य करता है। कभी-कभी एक ही थाप पर पूरा समूह इतना आगे आ जाता है कि बीच में जगह नहीं के बराबर रह जाती है और उसी संयोजनों के दूसरे भाग पर इतना पीछे पूरा समूह चला जाता है कि बीच में बेहिसाब जगह होती है इसी तरह से बायें दायें का संयोजन हुआ करता है।

मांदरी नृत्य काफी आकर्षक, इन संयोजनों के कारण हो जाता है यह नृत्य लगातार कई घण्टों तक चलता रह सकता है। मांदरी नृत्य लगभग प्रत्येक रीति-रिवाजों, पर्व-उत्सवों पर किया जाता है।

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