सुभद्राकुमारी चौहान आधुनिक हिन्दी कवयित्रियों में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं. वह मूलतः राष्ट्रीय भावना का अंकन करने वाली कवयित्री थीं। उन्होंने राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में खुलकर भाग लिया था और कई बार जेल गई थीं. उस युग में उनकी प्रसिद्ध रचना ‘झाँसी की रानी’ जनता के गले का कण्ठहार बनी हुई थी. उसकी उग्र राष्ट्रीय-भावना के कारण अंग्रेज सरकार ने उस पुस्तक को जब्त कर लिया था। जैसे-
“बुन्देले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।”
इन पंक्तियों ने उस युग में जनता में राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने और उसका प्रचार करने में ऐतिहासिक कार्य किया था। इसी प्रकार साधारण पाठकों में उनकी ‘बचपन’ नामक कविता अपनी सरलता, भाव-व्यंजकता और मार्मिकता के कारण काफी लोकप्रिय रही थी और आज भी है।
उन्होंने कहानियाँ भी लिखी थीं जिनका मूल स्वर राष्ट्रीय चेतना और देश के गौरव का प्रसार करना था। इस, प्रकार हम सुभद्राकुमारी चौहान को हिन्दी में राष्ट्रीय भावना का प्रचार और प्रसार करने वाले साहित्यकारों में एक विशिष्ट स्थान पर सुशोभित पाते हैं. उनका साहित्य इस बात का प्रमाण है कि सरल रूप में कही गईं बातें कितना गहरा प्रभाव डालती हैं।
जीवन परिचय
श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त 1904 में नागपंचमी के दिन उत्तर प्रदेश के प्रयाग जिले में हुआ था।
सुभद्रा कुमारी चौहान की जीवन की कुछ प्रमुख बाते
- पारिवाहिक संबंध: उनकी तीन बहनें और दो भाई थे।
- आरंभिक शिक्षा: उनकी आरम्भिक शिक्षा प्रयाग में अपने पिता ठाकुर रामनाथसिंह की देखरेख में ही हुई थी। ठाकुर साहब स्वयं बड़े शिक्षाप्रेमी व सुशिक्षित थे।
- जीवनसाथी: सुभद्राकुमारी का विवाह खंडवा निवासी ठाकुर लक्ष्मणसिह बी.ए., एल.एल.बी. के साथ हुआ। उस समय ये प्रयाग के क्रास्थवेट गर्ल्स स्कूल की छात्रा थीं।
एल.एल.बी. की परीक्षा पास करने के बाद ठाकुर लक्ष्मणसिंह जबलपुर चले गये और पं. माखनलाल चतुर्वेदी के साथ ‘कर्मवीर’ का सम्पादन करने और असहयोग आन्दोलन में योग देने लगे। श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान भी अपने पति के साथ जबलपुर चली गईं। असहयोग आन्दोलन का इनके ऊपर विशेष प्रभाव पड़ा और ये भी राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने लगीं। कई बार जेल भी गईं। आगे चलकर मध्य प्रदेश असेम्बली की सदस्या भी नियुक्त हुई परन्तु दुर्भाग्यवश वसंत पंचमी के दिन 12 फरवरी सन् 1948 ई. को एक मोटर दुर्घटना में इनकी मृत्यु हो गई. इनके दो पुत्र तथा एक पुत्री हैं।
बचपन से ही सुभद्राजी को कविता का शौक था। अपने पिता को भजन गाते सुनकर स्वयं भी गुनगुनाने लगती थीं. क्रास्थवेट कालिज में पढ़ते समय वहाँ के वार्षिक उत्सवों में, स्वयं अपनी लिखी हुई कविताएँ सुनाया करती थीं। उन्हीं दिनों तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में भी उनकी कविताएँ प्रकाशित होने लगी थीं। माखनलाल चतुर्वेदी के सम्पर्क से उनकी कविता चमक उठी।
उनकी काव्य प्रतिभा को प्रोत्साहन मिला। वे अच्छी-अच्छी रचनाएँ लिखने लगीं। राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय भाग लेने पर उनके ऊपर देश भक्ति का गहरा रंग चढ़ गया। इस प्रकार देश सेवा व साहित्य सेवा ही उनके जीवन का उद्देश्य बन गया।
सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रमुख रचनाएँ
सुभद्राजी प्रमुख रूप से कवयित्री हैं। साथ ही उन्होंने कहानियाँ आदि भी लिखी हैं जिनमें उनका गद्य लेखिका का रूप भी देखने को मिलता है। रचनाएँ अधिक नहीं हैं, परन्तु जितनी भी हैं, उनमें उनकी प्रतिभा के दर्शन होते हैं. अपनी कम रचनाओं द्वारा ही वे हिन्दी साहित्य की अमर विभूति बन गई हैं।
सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रमुख रचनाएं कौन कौन सी है?
उनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं-
- मुकुल
- बिखरे मोती
- उन्मादिनी
- त्रिधारा
- सभा के खेल
- सीधे-सादे चित्र
- मुकुल पर इन्हें सेक्सरिया पुरस्कार प्राप्त हुआ था. इसमें 39 कविताओं का संग्रह है।
- ‘सभा का खेल’ उनकी बालोपयोगी कविताओं का संग्रह है।
- ‘सीधे-सादे चित्र’ उनकी कहानियों का संग्रह है।
सुभद्रा कुमारी चौहान की सबसे चर्चित कविता
झांसी की रानी
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
साहित्य साधना
सुभद्राकुमारी चौहान छायावादी युग की प्रमुख कवयित्रियों में से हैं. वे इसी लोक की बात कहती हैं। इनकी रचनाओं में अज्ञात प्रियतम के लिये कहीं भी तड़पन, टीस व आँसू नहीं हैं, वरन् देश की पुकार पर मर मिटने वाले पुरुष व देवियों की परम पावन स्मृति में आँसू बहाने में इन्हें परम सुख प्राप्त हुआ है। इसलिये इनकी देशभक्ति से परिपूर्ण रचनाएँ अत्यधिक आकर्षित करने वाली रही हैं।
उनकी इस प्रकार की रचनाओं में ‘झाँसी की रानी‘ सर्वश्रेष्ठ रचना है। वीरोचित नारी जीवन का सजीव चित्र इस कविता में चित्रित हुआ है। इसका एक-एक शब्द नवीन स्फूर्ति और उत्साह देने वाला है। भारतीय नारी की सहज कोमलता और भावुकता तो है ही, साथ ही सामन्त युग की क्षत्राणियों का रक्त और ओज भी है. उनकी रचनाओं में इन दोनों – भावनाओं का स्पष्ट प्रभाव मिलता है। ‘वीरों का कैसा हो – बसंत’ और ‘जलियाँवाले बाग में बसन्त’ आदि उनकी ऐसी – ही ओजपूर्ण रचनाएँ हैं। देखिए-
“कहदे अतीत अब मौन त्याग
लंके ! तुझ में क्यों लगी आग ?
ए कुरुक्षेत्र ! अब बतला अपने अनुभव अनन्त, वीरों का कैसा हो वसंत !
उनकी रचनाओं का मुख्य विषय शृंगार और प्रेम, दीन जनता और देशप्रेम ही रहे हैं। नारी जीवन की नैसर्गिक सहज और अनुभूतिजन्य अभिव्यक्ति, पारिवारिक जीवन की अनुभूति, राष्ट्रीय भावना की संलग्नता ही इनकी कविता की मुख्य विशेषताएँ हैं। इनकी रचनाओं के विषय तीन प्रकार के प्रतीत होते हैं
- देशभक्ति से पूर्ण रचनाएँ,
- मातृत्व भावना से पूर्ण कवितायें,
- प्रणय सम्बन्धी कविताएँ।
राष्ट्रीयता के क्षेत्र में उन्हें वीरांगना लक्ष्मीबाई से प्रेरणा मिली है, इसीलिये उन्होंने उनका मुक्त कंठ से गुणगान किया है-
“चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी,
बुन्देले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।”
वात्सल्य रस से परिपूर्ण कविताएँ भी बड़ी सुन्दर व भावुकता पूर्ण हैं।
“मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी, नन्दन वन सी फूल उठी वह छोटी-सी कुटिया मेरी।”
प्रणय प्रधान रचनाओं में आत्म समर्पण की उच्च भावना है-
“चरणों पर अर्पित है इनको चाहो तो स्वीकार करो, यह तो वस्तु तुम्हारी ही है, ठुकुरा दो या प्यार करो।”
इसकी प्रेम की चुटकियाँ सरस मधुर और मार्मिक होती हैं। उनमें कहीं भी कल्पना की ऊँची-ऊँची उड़ानें नहीं मिलतीं।
भाषा और शैली
उनकी भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है। इसमें संस्कृत के सरल शब्दों के साथ-साथ विदेशी भाषा के शब्दों का बड़ी सफलतापूर्वक प्रयोग किया गया है। भावों के अनुरूप ही भाषा भी सीधी, सरल व बोधगम्य है। ओज, प्रसाद और माधुर्य तीनों गुणों से युक्त है। अलंकारों का प्रयोग स्वाभाविक रूप में हुआ है। उपमा, अनुप्रास, रूपकातिशयोक्ति, विशेषण- विपर्यय, सन्देह, भान्तिमान आदि आपके सिद्धहस्त और भाव प्रवणतामय अलंकार है। भाषा स्वाभाविक गति से आगे बढ़ती है। उसमें कहीं कोई रुकावट नहीं आती-
“बढ़ जाता है मान वीर का, रण में बलि होने से, मूल्यवती होती सोने की, भस्म यथा सोने से। रानी से भी अधिक हमें अब, यह समाधि है प्यारी, यहाँ निहित है स्वतन्त्रता की, आशा की चिंगारी।”
शैली में कोई नवीनता नहीं है। वह अलंकारों के बोझ से लदी न होकर सौन्दर्य से परिपूर्ण है। श्रृंगार, वीर, वात्सल्य रसों का सुन्दर चित्रण मिलता है। दीन-दुखियों के प्रति संवेदना की अभिव्यक्ति में करुण रस की विद्यमानता भी है। छंदों की दृष्टि से मात्रिका छंद उन्हें विशेष प्रिय हैं।
आपकी रचनाओं में मुहावरों का भी अच्छा प्रयोग मिलता है. ‘आँखों में बिठाना’, ‘पानी-पानी होना’, ‘शीश चढ़ाना’, आदि प्रचलित मुहावरों के यथास्थान उचित प्रयोग से उनकी भाषा शैली और भी सरस हो गई है।